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________________ धार्मिक लहर हो, नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे होते हो। और होती हैं अधार्मिक लहरें । कामवासना है, क्रोध है, ईर्ष्या है, अधिकार जमाने का भाव है और है घृणा । लाखों लहरें अधार्मिक हैं। और फिर होती हैं धार्मिक लहरें, ध्यान, प्रेम, करुणा । लेकिन ये सब होती हैं सतह की सतह पर। और सतह पर धार्मिक हो कि अधार्मिक उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। धर्म केंद्र में होता है और उस परिप्रेक्ष्य में होता है जो कि घटता है केंद्र द्वारा अपने घर के भीतर बैठे हुए, तुम देखते हो तुम्हारी अपनी सतह की ओर हर चीज बदल जाती है, क्योंकि तुम्हारा परिप्रेक्ष्य नया होता है। अकस्मात तुम नियंत्रण में होते हो। वस्तुतः तुम इतने ज्यादा नियंत्रण में होते हो कि तुम सतह को अनियंत्रित छोड़ सकते हो यह सूक्ष्म होता है तुम इतने ज्यादा नियंत्रण में होते हो, इतने ज्यादा बद्धमूल, सतह के बारे में निश्चित, कि वास्तव में तुम पसंद ही करोगे लहरों को और ज्वार को और तूफान को वह सब सौंदर्यपूर्ण होता है; वह ऊर्जादायक होता है। वह एक शक्ति होता है। कुछ है नहीं चिंता करने को केवल दुर्बल व्यक्तियों को चिंता रहती है विचारों की केवल दुर्बल व्यक्ति चिंता करते हैं मन की सशक्त व्यक्ति तो बिलकुल आत्मसात ही कर लेते हैं संपूर्ण को, और इससे ज्यादा समृद्ध होते हैं थे। सशक्त लोग तो अस्वीकार कर्ते ही नहीं किसी चीज को अस्वीकार किया जाता है कमजोरी के कारण। तुम भयभीत हो । सशक्त व्यक्ति हर उस चीज को आत्मसात लेना चाहेगा जो कुछ जीवन देता है। धार्मिक या कि अधार्मिक, नैतिक या कि अनैतिक, दिव्यता या कि शैतान रूपी कोई चीज; उससे कुछ भेद नहीं पड़ता। व्यक्ति हर उस चीज आत्मसात कर लेता है, और वह ज्यादा समृद्ध हो जाता है उससे। उसके पास होती है एक बिलकुल ही भिन्न गहराई। साधारण धार्मिक व्यक्ति उसे पा नहीं सकते हैं; वे तो दरिद्र हैं और सतही है। जरा साधारण धार्मिक व्यक्तियों को मंदिर जाते और मस्जिद और चर्च जाते हुए देखना। वहां तुम सदा पाओगे बिना गहराई के बहुत - बहुत सतही व्यक्तियों को ही। क्योंकि वे अस्वीकृत कर चुके हैं अपने हिस्सों को, वे अपंग हो गए हैं। एक खास ढंग से तो वे लकवा खा गये हैं। कुछ गलत नहीं है मन के साथ, और कुछ गलत नहीं है विचारों के साथ यदि कुछ गलत है, तो वह है सतह पर बने रहना, क्योंकि तब तुम संपूर्ण को जानते नहीं और तुम अनावश्यक रूप से पीड़ा भोगते हो एक अंश के कारण, अंश के बोध के कारण संपूर्ण बोध की जरूरत होती है। वह केवल केंद्र द्वारा संभव होता है, क्योंकि केंद्र से तुम देख सकते हो चारों ओर सभी आयामों में, सभी दिशाओं मेंतब तुम देख सकते हो अपने अस्तित्व की संपूर्ण परिधि को और वह विशाल होती है। वस्तुतः वह वैसी ही होती है जैसी की संपूर्ण अस्तित्व की परिधि होती है जब तुम केंद्रस्थ हो जाते हो, तो धीरेधीरे तुम ज्यादा और ज्यादा व्यापक हो जाओगे और ज्यादा से ज्यादा बड़े हो जाओगे। और समाप्ति होती है तुम्हारे ब्रह्म होने पर ही उससे कम पर नहीं। दूसरी दृष्टि से मन होता है उस धूल की भांति जिसे कोई यात्री अपने कपड़ों पर एकत्रित कर लेता है। तुम हजारों लाखों जन्मों से यात्रा और यात्रा कर रहे हो और स्नान कभी किया नहीं। स्वभावतया
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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