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________________ आज इतना ही। प्रवचन 40 - उत्सव की कीमिया: विरोधाभासों का संगीत प्रश्नसार: 1-मुझे अपने अहंकार के झूठेपन का बोध हो रहा है, इससे मेरे सारे बंधे-बंधाए उत्तर और सुनश्चित व्यवस्थाएं और ढांचे बिखर रहे हैं। मैं मार्गविहीन, दिशाविहीन अनुभव करता है। क्या करूं? 2-पश्चिम में जहां बहत-सी धार्मिक दुकानें है, वहां आपकी बात कहते समय व्यावसायिकता का बोध ग्लानि लाता है। इसके लिए क्या करू? 3-उत्सव क्या है? क्या दुःख का उत्सव मनाना संभव होता है? 4-आप अत्यंत विरोधाभासी है और सतत स्वयं का खंडन करते है। इससे क्या समझ सीखी जाए? पहला प्रश्न: जितना ज्यादा मैं देखता हूं स्वयं को उतना ज्यादा मैं अनुभव करता हूं अपने अहंकार के झूठेपन को। मैं स्वयं को ही अजनबी लगने लगा हूं अब नहीं जानता कि क्या झूठ है। यह बात मुझे एक बेचैन अनुभूति के बीच छोड़ देती है कि जीवन-मार्ग की कोई रूपरेखाएं नहीं हैं जो कि मुझे लगता था पहले मेरे पास थीं।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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