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________________ फिर होता है तीसरे प्रकार का संबंध जो कि संभव होता है केवल । चुका होता है। जब तुम वास्तव में ही प्रेम में पड़ते हो, तो प्रेम इतना स्वाभाविक हो जाता है कि तिरोहित हो जाता है। जब मैं कहता हं 'तिरोहित' तो मेरा यह मतलब नहीं होता कि वह तिरोहित हो जाता है, मैं केवल इतना ही कहता है कि तुम अब जागरूक न रहे इसके प्रति कि वह वहां है। क्या तुम जागरूक होते हो श्वास के प्रति? जब कुछ गलत घटता है, ही, तभी ही, जब तुम तेज दौड़ रहे होते हो, श्वास दुष्कर हो जाती है। और तुम्हारी श्वास अवरुद्ध हो जाती है। पर जब तुम अपनी कुर्सी पर पड़े आराम कर रहे होते हो और हर चीज ठीक होती है, तो क्या तुम श्वास के प्रति सजग होते हो? नहीं; इसकी कोई जरूरत नहीं होती। जब सिर में दर्द होता है केवल तभी तुम सिर के प्रति सजग होते हो; कुछ गलत हो गया होता है। जब सिर बिलकुल स्वस्थ होता है, तो तुम सिरविहीन होते हो। यही है स्वास्थ्य की परिभाषा. जब शरीर संपूर्णतया स्वस्थ होता है, तुम उसे जानते ही नहीं। यह ऐसे होता है जैसे कि वह वहां है नहीं; तुम देहविहीन हो जाते हो। यही परिभाषा है श्रेष्ठ प्रेम की भी। प्रेम परम है, उच्चतम स्वास्थ्य है, क्योंकि प्रेम व्यक्ति को बनाता है संपूर्ण। जब तुम सद्गुरु से प्रेम करते हो, तो धीरे-धीरे, तुम संपूर्णतया भूल जाते हो प्रेम को। वह इतना स्वभाविक हो जाता है, श्वास की भांति। तीसरे प्रकार का संबंध आत्मा में उतर आता है, जो कि न सिर का होता है और न हृदय का, बल्कि स्वयं आत्मा का ही होता है। हृदय और सिर दो तहें हैं; उनके पीछे छिपा होता है तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र। इसे तुम कह सकते हो आत्मा, आत्मन, 'स्व' या जो कुछ भी तुम कहना चाहो। क्योंकि, वहां शब्दों का कोई भेद अर्थपूर्ण नहीं रहता। तुम इसे कह सकते हो अनात्म-वह भी काम देगा। सिर तो प्रारंभ है; वहीं अटक मत जाना। हृदय है मार्ग-उससे गुजर जाना, लेकिन वहां भी घर मत बना लेना। अस्तित्व से अस्तित्व, बीईंग से बीईंग, फिर कोई सीमाएं नहीं रहती। वस्तुत: तब, शिष्य और सदगुरु दो नहीं रहते। वे दो की भांति अस्तित्व रखते हैं, लेकिन चेतना एक प्रवाहित होती हैएक किनारे से दूसरे किनारे तक। छठवां प्रश्न : आपने कहा कि स्कूल का बच्चा खिड़की से बाहर झांकता है तब वह ध्यान में होता है। जब मैं ऐसा करता था तो मैं हमेशा सोचता था कि दिन में स्वप्न देखता हूं और बहुत दूर होता हूं ध्यान से क्या मैं इस सारे समय ध्यान में रहता हं- बिना इसे जाने ही?
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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