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________________ में तो बिलकुल कुछ भी नहीं। तुम्हें जलाना पड़ता है दीया, और अचानक कहीं कोई अंधकार नहीं होता। दुख है अंधकार की भांति; वह कोई अस्तित्वगत बात नहीं। और यदि तुम दुख से लड़ना शुरू कर देते हो, तो तुम लड़ते रह सकते हो दुख से, लेकिन और ज्यादा दुख निर्मित होगा। यह तो मात्र एक सूचना होती है, एक स्वाभाविक सूचना तुम्हारी अंतस-सत्ता के विषय में कि जीवन अभी भी संघर्ष कर रहा है पैदा होने के लिए। दीया अभी प्रकाशित नहीं हुआ, इसलिए है दुख। आनंद का अभाव है दुख, और कुछ किया जा सकता है आनंद के विषय में, लेकिन दुख के लिए तो कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम दुखी होते हो और तुम कौशिश किए चले जाते हो उसे सुलझाने की। यहां, इस बिंदु पर, धार्मिक और अधार्मिक आदमी का मार्ग अलग हो जाता है, वे अलग हो जाते हैं। अधार्मिक आदमी लड़ने लगता है दुख के साथ, ऐसी स्थितियां बनाने की कोशिश करता है जिनमें वह दुखी नहीं होगा; दुख को अपनी नजरों से, दृष्टि से कहीं दर धकेलने लगता है। धार्मिक व्यक्ति खोजने लगता है आनंद, खोजना शुरू कर देता है परमानंद को, सच्चिदानंद को खोजने लगता है -तुम कह सकते हो इसे परमात्मा। अधार्मिक आदमी अभाव के साथ लड़ता है, धार्मिक आदमी लाने की कोशिश करता है अस्तित्वगत को-प्रकाश को, आनंद की मौजूदगी को। ये मार्ग बिलकुल ही विपरीत हैं, वे कहीं नहीं मिलते। एक साथ मीलों तक समानांतर चल सकते हैं वे, लेकिन वे मिलते कहीं नहीं। अधार्मिक आदमी को उस जगह तक वापस आना पड़ता है जहां ये दो मार्ग विभक्त होते हैं और अलग होते हैं। उसे आना होता है उस समझ तक कि अंधकार से लड़ना, दुख से लड़ना एक पागलपन है। भूल जाओ इस बारे में और इसके विपरीत प्रकार के लिए कोशि करो। एक बार प्रकाश पहुंचता है, तो तुम्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं होती, दुख तिरोहित हो जाता है। जीवन होता है केवल एक संभावना के रूप में। तुम्हें उस पर कार्य करना पड़ता है, तुम्हें उसे ले आना होता है सच्ची अस्तित्वगत अवस्था तक। कोई जीवंत उत्पन्न नहीं होता, केवल जीवंत होने की संभावना लिए रहता है। कोई उत्पन्न नहीं होता दृष्टि सहित, केवल देखने की संभावना लिए रहता है। जीसस अपने शिष्यों से कहते रहे, 'यदि तुम्हारे पास कान हैं तो सुनो! यदि तुम्हारे पास आख है तो देखो।' वे शिष्य तुम जैसे ही थे उनके पास आंखें थीं, उनके पास कान थे। वे अंधे या बहरे नहीं थे। क्यों जीसस कहते रहे कि यदि उनकी आंखें होती तो वे देखते; वह क्राइस्ट को देखने की क्षमता के विषय में कह रहे थे; वह क्राइस्ट को सुनने की सक्षमता की बात कह रहे थे। कैसे तुम सुन सकते हो क्राइस्ट को यदि तुमने नहीं सुनी होती है तुम्हारी अपनी आंतरिक आवाज? -असंभव। क्योंकि क्राइस्ट और कुछ नहीं सिवाय तुम्हारी आंतरिक आवाज के। कैसे तुम देख सकते हो क्राइस्ट को, यदि तुम स्वयं को नहीं देख पाते हो? क्राइस्ट तुम्हारी आत्मा के .अपनी परम महिमा में खिलने के, अपना परम विकास पाने के सिवाय कुछ नहीं।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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