SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैंने सजग रहने की कोशिश की। मैंने खजाना खोला। हजारों बहुमूल्य हीरे वहां पड़े थे, लेकिन आपके कारण मुझे खाली हाथ ही महल से बाहर आना पड़ा।' नागार्जुन ने कहा, 'मुझे बताओ कि हुआ क्या?' चोर ने कहा, 'जब भी मैं सजग हुआ और मैंने उन हीरों को उठाने की कोशिश की, तो हाथ हिलता ही नहीं था। यदि हाथ हिलता, तो फिर मैं सजग न रहता था। दो -तीन घंटे मैंने संघर्ष किया। मैंने कोशिश की सजग होने की और उन हीरों को उठाने की, लेकिन फिर मैं सजग न रहता था। इसीलिए मुझे उन्हें वापस वहीं रखना पड़ता था। जब भी सजग हुआ, तो हाथ न हिलता था।' नागार्जुन ने कहा, 'यही होती है सारी बात। तुमने सार को समझ लिया है।' बिना सजगता के तुम क्रोधित, आक्रामक, सत्तात्मक, ईर्ष्यालु हो सकते हो। ये पत्ते और शाखाएं हैं, न कि जड़ें। सजगता के साथ तुम क्रोधित नहीं हो सकते, तुम आक्रामक, हिंसात्मक, लोभी नहीं हो सकते। साधारण नैतिकता तुम्हें सिखाती है लोभी न बनो, क्रोधी न होओ। वह साधारण नैतिकता होती है। वह कुछ ज्यादा मदद नहीं देती। ज्यादा से ज्यादा एक क्षुद्र दमित व्यक्तित्व निर्मित हो जाता है। लोभ बना रहता है, क्रोध बना रहता है, केवल तुम थोड़ी सामाजिक नैतिकता तो पा सकते हो। यह बात समाज में एक होशियार भागीदार के रूप में तो मदद कर सकती है, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं घटता है। पतंजलि साधारण नैतिकता नहीं सिखा रहे हैं। पतंजलि बता रहे हैं सभी धर्मों के सच्चे मूल को ही, धर्म का असली विज्ञान। वे कहते हैं, 'प्रत्येक कार्य को कारण तक ले आओ। और कारण सदा होता है असचेतनता, अजागरूकता, अविदया। सजग हो जाओ, और हर चीज तिरोहित हो जाती है। पांचों दुखों की बाह्य अभिव्यक्तियां तिरोहित हो जाती हैं ध्यान के दवारा। तुम्हें उनकी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, बस तुम ध्यान ज्यादा करो, ज्यादा सजग हो जाओ। पहले तो बाहरी अभिव्यक्तियां : क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, आकर्षण मिट जाते हैं। पहले बाहरी अभिव्यक्तियां मिट जाती हैं, तो भी बीज बने रहते हैं तुममें। तब व्यक्ति को बहुत ज्यादा गहरे में जाना होता है, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम क्रोधित होते हो केवल जब तुम्हें क्रोध आता है। यह बात सच नहीं है, क्रोध की एक अंतर्धारा चलती रहती है, तब भी जब कि तुम क्रोधित नहीं होते। अन्यथा, यथा समय कहां से पाओगे तुम क्रोध? कोई तुम्हारा अपमान कर देता है और अचानक तुम्हें क्रोध आ जाता है। क्षण भर पहले तुम प्रसन्न थे, मुस्कुरा रहे थे और फिर चेहरा बदल जाता है; तुम खूनी बन जाते हो। कहां से पाया तुमने इसे? यह जरूर मौजूद रहा होगा, एक अंतर्धारा तुममें सदा मौजूद रहती है। जब कभी आवश्यकता आ बनती है, अवसर बन जाते हैं, तो अचानक क्रोध भभक उठता है। पहले, ध्यान तुम्हारी मदद करेगा। बाहरी अभिव्यक्ति तिरोहित हो जाएगी। लेकिन उसी से संतुष्ट मत हो जाना, क्योंकि मूलरूप से यदि अंतर्धारा बनी रहती है, तो किसी समय उसके लिए संभावना होती है,
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy