SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जब कामेच्छा उभरती है, तब तुम्हें पूरा ध्यान देना है उस पर निर्णय न लेते हुए, नहीं कहते हुए कि ऐसा अच्छा है या बुरा। नहीं कहते हुए कि यह पाप है, नहीं कहते हुए कि यह शैतान की शैतानी है। नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं होना चाहिए क्योंकि सारे मूल्यांकन मन से संबंधित होते हैं। साक्षी का मन से संबंध नहीं। अच्छा, बुरा-तमाम भेद संबंधित होते हैं मन से, और साक्षी होता है अविभक्त, एक। न अच्छा होता है और न बुरा। वह तो मात्र होता है। यदि कोई भूख पर ध्यान देता है या कि कामेच्छा पर पूरा ध्यान देता है-और समग्र ध्यान एक ऐसी ऊर्जा होती है, वह अग्नि ही होती है –कि भूख जल ही जाती है, कामवासना की इच्छा बिलकुल जल जाती है। क्या घटता है? कौन सा रचना -तंत्र होता है भीतर? तुम भूख अनुभव करते हो। वस्तुत:, तुम कभी भूखे नहीं होते। शरीर भूखा होता है, तुम कभी नहीं होते भूखे। लेकिन तुमने तादात्म्य बनाया होता है शरीर के साथ। तुम अनुभव करते हो, 'मैं हूं शरीर।' इसीलिए तुम अनुभव करते कि तुम भूखे हो। जब तुम ध्यान देते हो भूख पर तो एक दूरी निर्मित हो जाती है, तादात्म्य टूट कर गिर पड़ता है। तुम अब शरीर नहीं रहते : शरीर भूखा होता है और तुम होते हो द्रष्टा। अचानक, एक आनंदपूर्ण स्वतंत्रता तुममें उदित होती है जहां कि तुम अनुभव करते हो, 'मैं शरीर नहीं हूं मैं कभी नहीं रहा शरीर। शरीर है भूखा, पर मैं नहीं हूं भूखा। 'सेतु टूट जाता है-तुम अलग हो जाते हो। शरीर में कामवासना के लिए इच्छा है क्योंकि शरीर आया है कामवासना में से ही। शरीर की इच्छा है कामवासना के लिए क्योंकि शरीर का हर कोशाणु कामवासनामय है। तुम्हारे माता-पिता ने, गहन कामुक क्रिया में निर्मित किया है तुम्हारे शरीर को। तुम्हारे शरीर के पहले कोशाणु ही आये थे गहन काममय भावावेश द्वारा; वे उसी का गुणधर्म वहन किए रहते हैं। वे कोशिकाएं अपने को बढ़ाती रही हैं, और इसी भाति तुम्हारा सारा शरीर निर्मित हुआ है। तुम्हारा सारा शरीर काम-आवेश है। कामवासना उठती है। शरीर के लिए ऐसा स्वाभाविक है, कुछ गलत नहीं है इसमें। शरीर काम-ऊर्जा है और कुछ नहीं। शरीर के लिये तो ब्रह्मचर्य संभव नहीं। कामवासना स्वाभाविक है शरीर के लिये। कामवासना शरीर के लिये स्वाभाविक है, और तुम्हारे लिये केवल ब्रह्मचर्य है स्वाभाविक; कामवासना है अस्वाभाविक नितांत अस्वाभाविक। इसीलिये हम इसे कहते हैं ब्रह्मचर्य। अंग्रेजी शब्द 'सेलिबेसि' बहुत ठीक नहीं है। वह बहुत साधारण है, सस्ता है। ब्रह्मचर्य का भाव नहीं पहुंचा पाता है। ब्रह्मचर्य प्राप्त किया गया है 'ब्रह्म' के मूल से। ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ होता है कि तुम आये हो उपलब्ध होने को, तुम आये हो जानने को कि तुम हो ब्रह्म, परम, दिव्य, कि तुम हो स्वयं परमात्मा। जब कोई अनुभव करने लगता है वह स्वयं भगवान है, तब उसमें होता है वास्तविक ब्रह्मचर्य। तब कोई समस्या नहीं होती। और घटता क्या है, अदभुत बात तो यह होती है कि जब तुम अलग होते हो, जब सेतु टूट जाता है और शरीर से तुम्हारा तादात्म्य नहीं बना रहता, तो तुम नहीं कहते, 'मैं शरीर हूं। 'तुम कहते हो, 'मैं शरीर में हूं तो भी शरीर नहीं हूं। मैं रहता हूं इस घर में, पर मैं घर नहीं हूं। मैं इन
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy