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________________ तुम सदा दुख की फसल पाते हो और तुम्हें कभी होश नहीं आता कि बीज के साथ ही कुछ गलत होगा। जब कभी तुम्हें दुख भोगना पड़ता है, तुम सोचने लगते हो कि कोई दूसरा तुम्हें धोखा देता रहा है-पत्नी, पति, मित्र, परिवार, पर है कोई दूसरा ही। शैतान या कोई और तुम्हारे साथ चालाकियां चल रहा है। यह है उस सच्चाई से बचना कि तुमने गलत बीज बोए हैं। दुख को सुख जान लेना जागरूकता का अभाव होना है। और यही है कसौटी। पूछो पतंजलि से, शंकराचार्य से, बुद्ध से; यही है कसौटी : यदि अंततः कोई बात दुख बन जाती है, तो आरंभ से ही वह दुखदायी रही होगी। अंत कसौटी है; अंतिम फल ही है कसौटी। तुम्हें वृक्ष पहचानना है फल द्वारा, दूसरा और कोई उपाय नहीं पहचानने का। यदि तुम्हारा जीवन दुख का एक वृक्ष बन गया है, तो तुम्हें जानना चाहिए कि बीज ही गलत था; तुमने कुछ गलत किया, वापस लौटो। लेकिन तुम कभी वैसा नहीं करते। तुम फिर वही गलती दुबारा करोगे। यदि तुम्हारी पत्नी मर जाए और तुमने बार सोचा था कि यदि वह मर जाए तो अच्छा ही होगा ऐसा पति खोजना कठिन है, जिसने बहुत बार सोचा न हो कि यदि उसकी पत्नी मर जाए तो यह अच्छा होगा-'मैंने तोबा की और मुझे फिर किसी स्त्री की तरफ देखना ही नहीं है। लेकिन जिस क्षण पत्नी मरती है, तुरंत दूसरी त्नी का विचार मन में आ जाता है। मन फिर सोचने लगता है, 'कौन जाने? यह स्त्री अच्छी न हो, लेकिन दूसरी स्त्री अच्छी हो सकती है। यह संबंध सुंदर अंत तक नहीं पहुंचा, लेकिन यह बात सारे द्वार ही तो बंद नहीं कर देती, दूसरे द्वार खुले हैं।' मन काम करने लगता है। तुम फिर से जाल में उलझ जाओगे और तुम फिर पीड़ा पाओगे। और तुम सदा ही सोचोगे, 'शायद यह स्त्री या कि वह स्त्री.....:।' यह स्त्री या पुरुष का सवाल नहीं, यह जागरूक होने का सवाल है। यदि तुम्हें होश होता है, तब जो कुछ तुम करते हो, तुम अंत की ओर देखते हुए ही करोगे। तुम्हें इसका पूरा होश रहेगा कि अंत में क्या होने वाला है। तो यदि दुखमय होना चाहते हो, यदि तुम और दुख में जीना ही चाहते हो, तो यह चुनना तुम पर है। लेकिन तब तुम किसी दूसरे को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। तुम बिलकुल ठीक से जानते हो कि तुमने बीज बोया और अब तुम्हें उसके वृक्ष का फल पाना ही है। लेकिन कौन ऐसा मूढ़ है कि सजग, सचेत होकर वह कडुवे बीज बोएगा? किसलिए? 'और अनात्म को आत्म जानना अविद्या है'।' यही चीजें हैं कसौटी। तुमने अनात्म को आत्म जान लिया है। कई बार तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। कई बार तुम सोचते हो कि तुम मन हो। कई बार तुम सोचते हो कि तुम हृदय हो। ये हैं तीन उलझाव। शरीर सबसे ज्यादा बाहरी परत है। जब तुम्हें भूख: लगती है, तब क्या तुमने सदा यही नहीं कहां है कि 'मैं भूखा हूं?' जागरूकता का अभाव है यह। तुम तो मात्र जानने वाले हो कि शरीर भूखा है, तुम भूखे नहीं होते हो। चेतना कैसे भूखी हो सकती है? भोजन कभी भी चेतना में प्रवेश नहीं करता है, चेतना कभी
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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