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________________ यही अंतिम संदेश है सारे बुद्ध पुरुषों का, क्योंकि वे बहुत आकर्षक होते हैं, तुम प्रभाव में पड़ सकते हो और एक बार तुमसे बाहर की चीज तुम्हारे स्वभाव में प्रवेश कर जाती है, तो तुम गलत मार्ग पर होते हो। पतंजलि कहते हैं, 'अशुद्ध को शुद्ध जानना, दुख को सुख जानना जागरूकता का अभाव है, अविद्या है।' तुम कहोगे, 'जो कुछ पतंजलि कहते हैं सच हो सकता है। लेकिन हम इतने मूढ नहीं कि दुख को सुख मान लें। तुम मूढ हो। हर कोई मूढ़ है जब तक कि कोई संपूर्णतया जागरुक नहीं हो जाता। तुमने बहुत सारी चीजें सुखकारी मान ली हैं जो कि दुखदायी हैं। तुम पीड़ा भोगते हो और तुम चीखतेचिल्लाते और रोते हो, लेकिन फिर भी तुम नहीं समझते कि तुमने कुछ ऐसी चीज की है जो कि मौलिक रूप से दुखपूर्ण है और सुख में परिवर्तित नहीं की जा सकती। संबंधी मामलों को लेकर वे कहते हैं कि यह तो बहुत पीड़ा देखा, जिसने कहा हो मुझसे कि उनका यौन जीवन वैसा ही बात क्या है? शुरू में वे कहते हैं कि हर चीज सुंदर है। शुरू रोज मेरे पास लोग आते हैं अपने यौन से भरा है। मैंने एक भी ऐसा जोड़ा नहीं है जैसा कि उसे होना चाहिए-श्रेष्ठ, सुंदर में वह सदा ही होती है हर किसी के लिए यौन संबंध सुंदर होता है शुरू में, लेकिन फिर क्यों वह दुखी और कडुआ हो जाता है? क्यों थोड़े समय बाद हनीमून के खत्म होने के पहले ही वह हताश और कडुआ होने लगता है? जिनके पास भी मानव चेतना पर कुछ गहराई से कहने को सत्य वचन हैं, वे कहते हैं, शुरू शुरू में जो सौंदर्य है वह एक प्राकृतिक तरकीब है तुम्हें धोखा देने की। एक बार तुम धोखे में आ जाते हो, फिर वास्तविकता उभर आती है। यह ऐसे है जैसे कि जब तुम मछली पकड़ने जाते हो और तुम किसी काटे का प्रयोग करते हो; शुरू में जब दो व्यक्ति मिलते हैं, तो वे सोचते हैं कि ' अब यह संसार का सबसे बड़ा चरम अनुभव होगा।' वे सोचते हैं कि यही स्त्री सबसे सुंदर स्त्री है' और स्त्री सोचती है कि जो पुरुष हुए उन में से यह सब से महान पुरुष है।' वे एक भ्रांति का आरंभ करते हैं, वे प्रक्षेपित करते हैं। वे कोशिश करते हैं वह देखने की जो कुछ वे देखना चाहते हैं। वे नहीं देखते असली व्यक्ति को। वे नहीं देखते उसे जो वहा है, वे तो बस उनका अपना सपना प्रक्षेपित हुआ ही देखते हैं। दूसरा तो केवल एक परदा बन जाता है और तुम प्रक्षेपित करते हो। देर- अबेर वास्तविकता आ बनती है। और जब कामवासना की परिपूर्ति हो जाती है, जब प्रकृति के आधारभूत सम्मोहन की पूर्ति हो जाती है, तब हर चीज बेस्वाद हो जाती है। — तब तुम दूसरे को ऐसे देखने लगते हो जैसा कि वह होता है, बहुत सामान्य, कुछ विशिष्ट नहीं। शरीर में अब कोई सुगंध न रही उससे तो पसीना बहता । चेहरा अब दिव्य न रहा- वह पशु जैसा हो गया।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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