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________________ है और उसने फर्श साफ करना शुरू कर दिया है-सुबह की सारी आवाजें हैं। क्या घट रहा है? तुम ज्यादा होशपूर्ण हो रहे हो। एक क्षण पहले तुम बिना किसी होश के गहरी नींद में थे; फिर अचानक पक्षी, दूधवाला, नौकर, बच्चों से बात करती पत्नी, इनकार करते हुए बच्चे जो उठने को तैयार नहीं है। धीरे- धीरे चीजें उभरने लगती हैं चेतना में। तुम होश पा रहे होते हो। तुम शायद अभी थोड़ा ऊंघो, शायद तुम करवटें बदलो, आंखें बंद कर लो, थोड़ा ऊंघ लो, लेकिन आधे नींद में, आधे जागरण में तुम चीजों को सुने चले जाते हो। तुम जागरूक हो जाते हो और नींद फिर नहीं रहती। जितने ज्यादा जागरूक तुम होते हो, उतने ज्यादा स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं। जब जागे हुए हो तो ऐसा ही किया जाना चाहिए; ज्यादा सुनो, ज्यादा अनुभव करो, जो कुछ भी तुम करो उसमें ज्यादा सजग रहो। यदि तुम नहा रहे हो तो तुम अपने ऊपर से बहते हुए पानी के स्पर्श को अनुभव करो, जितना कर सको उतना करो उसे। वही अनुभूति, वह जागरूकता, तुम्हें अहंकार से बाहर ले जाएगी; तुम साक्षी हो जाओगे। यदि तुम खा रहे होते हो, तो खाओ, तुम लेकिन ज्यादा स्वाद लेना, ज्यादा संवेदनशील हो जाना, ज्यादा उतर जाना तुम्हारे भोजन करने में और मन को इधर-उधर मत जाने देना। वहां बने रहो पूरी तरह सजग होकर, और धीरे-धीरे तुम देखोगे कि कुछ उठ रहा है नींद के समुद्र में से, तुम और-और ज्यादा सचेत हो रहे हो, सजग हो रहे हो। तुम्हारी जागरूकता में कोई स्वप्न नहीं होता, कोई अहंकार नहीं होता। वही है एकमात्र ढंग। वह कुछ करने का हिस्सा नहीं है, वह हिस्सा है होश पाने का: और इस भेद को स्मरण रखना है। तम जागरूकता को कर नहीं सकते, वह कोई क्रिया नहीं है। तुम होशपूर्ण हो सकते हो। वह तुम्हारे होने का भाग है। इसलिए ज्यादा अनुभव करो, ज्यादा सूंघो, ज्यादा सुनो, ज्यादा छूओ, और- और ज्यादा संवेदनशील होओ-और अचानक, कुछ उठता है निद्रा में से, और कोई अहंकार नहीं बना रहता, तुम समर्पित होते हो। कोई कभी नहीं करता है समर्पण, किसी एक घड़ी में कोई अचानक पाता है कि वह समर्पित हो गया, ईश्वर के प्रति समर्पित, समग्र के प्रति समर्पित। जब तुम नहीं होते, तो तुम समर्पित होते हो। जब तुम होते हो, तो कैसे तुम समर्पित हो सकते हो? तुम नहीं कर सकते समर्पण-तुम ही हो अड़चन, तुम ही वह आधार हो जिससे अवरोध बनता है। इसलिए मुझसे मत पूछना, 'कैसे मैं समर्पण करूं?' यह होता है अहंकार का पूछना। जब मैं बात करता हूं निरहंकार की या समर्पण की, तो तुम्हारा अहंकार उसके प्रति लोभ अनुभव करने लगता है। तुम सोचते हो, 'कैसे हुआ कि मैंने अभी तक यह अवस्था उपलब्ध नहीं की? मैं और अब तक नहीं पा सका ऐसी अवस्था? मुझे पानी ही होगी। यह समर्पण मुझसे नहीं बच सकता। मुझे कहीं, किसी तरह से इसे ले आना होगा, इसे पाना ही है। इसे खरीदना ही है!' अहंकार को लोभ अनुभव हो रहा होता है इसके लिए और अब अहंकार पछता है, 'कैसे करूं इसे?'
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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