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________________ क्रियायोग का अभ्यास क्लेश (दुःख) को घटा देता है। और समाधि की ओर ले जाता है। अविदयास्मितारागदवेषाभिनिवेशा: क्लेशा:।। 3।। दुःख उत्पन्न होने के कारण है: जागरूकता की कमी, अहंकार, मोह, घृणा, जीवन से चीपके रहना और मृत्यु भय। अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम।। 4।। चाहे वे प्रसुप्तता की, क्षीणता की, प्रत्यावर्तनकी या फैलाव की अवस्थाओं में हों, दुःख के दूसरे सभी कारण क्रियान्वित होते है-जागरूकता के आभाव दवारा ही। सामान्य मनुष्यता को दो मूलभूत प्रकारों में बांटा जा सकता है: एक तो है पर-पीड़क और दूसरा है स्व-पीड़क। पर-पीड़क आनंद पाता है दूसरों को पीड़ा पहुंचा कर और स्व-पीड़क आनंदित होता है स्वयं को पीड़ा पहुंचा कर। निस्संदेह दूसरों को पीड़ा देने वाला आकर्षित होता है राजनीति की ओर। वहां संभावना होती है, दूसरों को उत्पीड़ित करने का अवसर होता है। या वह आकर्षित होता है वैज्ञानिक खोज की ओर, विशेषकर चिकित्सा-शास्त्र की खोज की ओर। वहां प्रयोग के नाम पर एक संभावना होती है, मासूम जंतुओं को यातना देने की, रोगियों, मुर्दा और जीवंत शरीरों को उत्पीड़ित करने की। यदि राजनीति बहुत भारी पड़ती है और वह अपने बारे में ज्यादा निश्चित नहीं होता है और न ही इतना बुद्धिमान होता है कि किसी अनुसंधान में लग जाए तब पर-पीड़क बन जाता है स्कूलमास्टर, वह छोटे-छोटे बच्चों को सताने लगता है! लेकिन पर-पीड़क सदा ही सरकता रहता है ज्ञात रूप से या अज्ञात रूप से उस परिस्थिति की ओर जहां कि वह पीड़ा दे सकता हो। देश के नाम पर समाज, राष्ट्र, क्रांति के नाम पर, सत्य और खोज के नाम पर, सुधार-आदोलन के, दूसरों को सुधारने के नाम पर, पर-पीड़क सदा किसी न किसी को उत्पीड़ित करने के अवसर की खोज में रहता है। पर-पीड़क धर्म की ओर बहुत आकर्षित नहीं होते हैं। दूसरे प्रकार के लोग आकर्षित होते हैं धर्म की ओर, वे हैं स्व-पीड़क। वे स्वयं को पीड़ा दे सकते हैं। वे बन जाते हैं महात्मा, वे बन जाते हैं बड़े संत और वे सम्मान पाते हैं समाज के द्वारा क्योंकि वे स्वयं को पीड़ा पहुंचाते हैं। एक पक्का स्व-पीड़क
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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