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________________ तुमने गिरा दिया जड़ माध्यमों को। तुम वास्तविकता का सामना करते हो तुम्हारी समग्र नग्नता सहित। निर्विचार होकर तुम नग्न होते हो। विचारविहीन तुम कौन होते हो? –हिंदू मुसलमान, ईसाई, कम्युनिस्ट? तुम कौन होते हो बिना विचारों के? – धार्मिक, अधार्मिक? तुम कोई नहीं होते बिना विचारों के। सारे कपड़े गिरा दिए गए होते हैं। तुम होते हो मात्र एक नग्नता, एक शुद्धता, एक शून्यता। तब प्रत्यक्ष बोध स्पष्ट हो जाता है, और स्पष्टता के साथ चली आती है विस्तीर्णता और प्रगाढ़ता। अब तुम देख सकते हो अस्तित्व के विशाल फैलाव की ओर। अब तुम्हारे प्रत्यक्ष बोध में कोई अवरोध नहीं रहता। तुम्हारी दृष्टि हो जाती है अपरिसीम। प्रगाढ़ता सहित तुम देख सकते हो किसी घटना में, किसी व्यक्ति में, क्योंकि 'चीजें' अब वहां नहीं बनी हुई हैं। फूल भी अब व्यक्ति हैं, और वृक्ष हैं मित्र, और चट्टानें हैं सोई हुई आत्माएं। अब प्रगाढ़ता घटती है, तुम पूरा –पूरा देख सकते हो। जब तुम पूर्णरूपेण देख सकते हो फूल की ओर, तब तुम समझ पाओगे कि रहस्यवादी संत और कवि क्या कहते रहे हैं। टेनीसन कहता है, 'यदि मैं किसी फूल को समझ सका, किसी छोटे –से फूल को उसकी समग्रता में समझ सका, तो मैं समझ जाऊंगा समस्त को।' ठीक, बिलकुल ठीक है बात। यदि तुम एक अंश को समझ सकते हो, तब तुम समझ जाओगे संपूर्ण को, क्योंकि अंश ही है संपूर्ण। जब तुम अंश को समझने की कोशिश करते हो, तो धीरे - धीरे, अनजाने ही तुम बढ़ चुके होओगे संपूर्ण की ओर, क्योंकि अंश अवयव है संपूर्ण का। एक बार, एक बड़े रहस्यवादी इकहार्ट से पूछा किसी ने, 'तुम क्यों नहीं लिखते तुम्हारी जीवन-कथा? तुम्हारी आत्मकथा बहुत-बहुत मददगार होगी लोगों के लिए।' वह बोला, 'कठिन है, असंभव है क्योंकि -यदि मैं अपनी आत्मकथा लिखता हैं तो वह आत्मकथा होगी समष्टि की, क्योंकि हर चीज संबंधित है। और वह हो जाएगी बहुत ज्यादा। कैसे कोई आत्मकथा लिख सकता है समष्टि की?' इसीलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने सदा रोका है इसे, उन्होंने कभी नहीं लिखी हैं आत्मकथाएं- सिवाय इन परमहंस योगानंद के, जिन्होंने लिखी है, 'एक योगी की आत्मकथा'। वे योगी ही नहीं हैं। एक योगी नहीं लिख सकता है आत्मकथा। वैसा असंभव होता है, एकदम असंभव, क्योंकि जब कोई निर्विचार समाधि को उपलब्ध होता है, तब वह होता है योगी, और फिर होती है मात्र विशालता-अब लग बन गया होता है संपूर्ण। यदि तुम सचमुच लिखना चाहते हो आत्मकथा, तो वह समष्टि की आत्मकथा होगी प्रारंभ से और प्रारंभ है नहीं; अंत तक की और अंत है नहीं! यदि मैं हो जाता हं जागरूक अपने में, तो समष्टि पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। मैं अपने जन्म से प्रारंभ नहीं करता, मैं प्रारंभ करता हं एकदम प्रारंभ से ही, और प्रारंभ कोई है नहीं; और मैं चला जाऊंगा एकदम अंत तक-और अंत कहीं है नहीं। मैं गहन रूप से जुड़ा हूं संपूर्ण के साथ। ये थोड़े –से वर्ष
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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