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________________ है, केवल तभी प्रार्थना संभव होती है। तब दोनों प्रेमी अपनी एकमयता में बहुत परितृप्त अनुभव करते हैं, बहुत संपूर्ण, कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है। वे गुनगुनाना शुरू कर देते हैं प्रार्थना को। प्रेम इस संपूर्ण अस्तित्व की सबसे बड़ी चीज है। वास्तव में, हर चीज हर दूसरी चीज के प्रेम में होती है। जब तुम पहुंचते हो शिखर पर, तुम देख पाओगे कि हर चीज, हर दूसरी चीज को प्रेम करती है। जब कि तुम प्रेम की तरह की भी कोई चीज नहीं देख पाते, जब तुम घृणा अनुभव करते हो -घृणा का अर्थ ही इतना होता है कि प्रेम गलत पड़ गया है। और कुछ नहीं। जब तुम उदासीनता अनुभव करते हो, इसका केवल यही अर्थ होता है कि प्रेम प्रस्फुटित होने के लिए पर्याप्त रूप से साहसी नहीं रहा है। जब तुम्हें किसी बंद व्यक्ति का अनुभव होता है, उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि वह बहत ज्यादा भय अनुभव करता है, बहत ज्यादा असुरक्षा-वह पहला कदम नहीं उठा पाया। लेकिन प्रत्येक चीज ओम है। हालांकि जब एक जानवर दूसरे जानवर पर जा कूदता है और उसे खा जाता है, जब एक शेर एक हिरण के ऊपर छलांग लगा देता है और उसे खा जाता है, तो वह प्रेम ही होता है। यह लगता है हिंसा की भांति क्योंकि तुम्हें पता नहीं होता, वह प्रेम होता है। वह जानवर, वह शेर समाविष्ट कर रहा होता है हिरण को अपने में। निस्संदेह यह बात बहुत अपरिष्कृत होती है, बहुत बहुत अनगढ़ और जंगली, यह होती है पशु-सदृश लेकिन तो भी यह है प्रेम ही। प्रेमी एक -दूसरे को भोजन जानते हैं, वे अपने में समाते है, एक-दूसरे को। पशु बहुत जंगली ढंग से ऐसा कर रहा होता है, बस यही होती है बात। सारा अस्तित्व प्रेममय है। वृक्ष प्रेम करते हैं पृथ्वी को। वरना कैसे वे साथ -साथ अस्तित्व रख सकते थे? कौन-सी चीज उन्हें साथ-साथ पकड़े हुए होगी? कोई तो एक जुड़ाव होना चाहिए। केवल जड़ों की ही बात नहीं है, क्योंकि यदि पृथ्वी वृक्ष के साथ गहरे प्रेम में न पड़ी हो तो जड़ें भी मदद न देंगी। एक गहन अदृश्य प्रेम अस्तित्व रखता है। संत अस्तित्व, संपूर्ण ब्रह्माड घूइरमता है प्रेम के चारों ओर। प्रेम ऋतम्भरा है। इसलिए कल कहां था मैंने सत्य और प्रेम का जोड़ है ऋतम्भरा। अकेला सत्य बहुत रूखा -सूखा होता है। यदि तुम समझ सको-बिलकुल अभी तो यह केवल एक बौद्धिक समझ हो सकती है, लेकिन तुम्हारी स्मृति में रख लेना इसे। किसी दिन यह बात बन सकती है एक अस्तित्वगत अनुभव। ऐसा ही अनुभव करता हूं मैं। शत्रु एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, वरना क्यों करेंगे वे एक -दूसरे की चिंता? वह व्यक्ति भी जो कि कहता है कि ईश्वर नहीं है, प्रेम करता है ईश्वर से, क्योंकि वह निरंतर कहता जाता है कि ईश्वर नहीं है। वह वशीभूत है, मुग्ध है, वरना क्यों करेगा वह परवाह? एक नास्तिक जीवन भर यही प्रमाणित करने की कोशिश करता है कि ईश्वर नहीं है। वह इतने प्रेम में होता है, और इतना भयभीत होता है ईश्वर
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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