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________________ जब तक कि वह दिव्य नहीं होती, उसमें देखने को कुछ है नहीं । प्रेम सेक्स को एक नयी आत्मा दे सकता है। तब सेक्स रूपांतरित हो जाता है - वह सुंदर बन जाता है। वह अब कामवासना का भाव न रहा, उसमें कहीं पार का कुछ होता है वह सेतु बन जाता है। । तुम किसी व्यक्ति को प्रेम कर सकते हो। इसलिए क्योंकि वह तुम्हारी कामवासना की तृप्ति करता है। यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्योंकि तुम प्रेम करते हो तब कामभाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति तब वह सुंदर होता है, तब वह पशु-संसार का नहीं रहता। तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्ट हो चुकी होती है। और यदि तुम किसी व्यक्ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे-धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है। आत्मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्यकता नहीं रहती। प्रेम स्वयं में पर्याप्त होता है जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है। ऐसा नहीं कि उसे गिरा दिया गया होता है, ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं। वह तो बस तिरोहित हो जाती है जब दो प्रेमी इतने गहन प्रेम में होते हैं कि प्रेम पर्याप्त होता है और कामवासना बिलकुल गिर जाती है, तब दो प्रेमी समग्र एकत्व में होते हैं, क्योंकि कामवासना विभक्त करती है। अंग्रेजी का शब्द 'सेक्स' तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है विभेद । प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है। कामवासना विभेद का मूल कारण है। जब तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्त्री या पुरुष के साथ, तो सोचते हो कि सेक्स तुम्हें जोड़ता है। क्षण भर को तुम्हें भ्रम होता है एकत्व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है। इसीलिए प्रत्येक काम क्रिया के पश्चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है। व्यक्ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दूर है। कामवासना भेद बना देती है, और जब प्रेम ज्यादा और ज्यादा गहरे में उतरता है और ज्यादा और ज्यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्यकता नहीं रहती । तुम इतने एकत्व में रहते हो कि तुम्हारी आंतरिक ऊर्जाएं बिना कामवासना के मिल सकती हैं। जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे । वे दो शरीरों की भांति एक आत्मा में रहते हैं। आत्मा उन्हें घेरे रहती है। वह उनके शरीर के चारों ओर एक प्रदीप्ति बन जाती है लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है। लोग कामवासना पर समाप्त हो जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा जब इकट्ठे रहते हैं; तो वे एक-दूसरे के प्रति स्नेहपूर्ण होने लगते हैं ज्यादा से ज्यादा यही होता है लेकिन प्रेम कोई स्नेह का भाव नही है, वह आत्माओं की एकमयता है - दो ऊर्जाएं मिलती हैं और संपूर्ण इकाई हो जाती हैं। जब ऐसा घटता
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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