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________________ अत: सत्य कोई निष्कर्ष नहीं है जिस पर कि पहुंचा जाए, सत्य एक अनुभव है जिसे उपलब्ध करना होता है। सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके बारे में तुम सोच सको, यह कुछ ऐसा है जो कि तुम हो सकते हो। सत्य एक अनुभव है स्वयं के संपूर्ण रूप से अकेले होने का, बिना किसी विषय के। तुम्हारी परम शुद्धता में तुम्ही हो सत्य। सत्य कोई दार्शनिक निष्कर्ष नहीं है। कोई सैद्धातिक तर्क तुम्हें सत्य नहीं दे सकता। कोई सिदधात, कोई परिकल्पना तुम्हें नहीं दे सकते सत्य को। सत्य तम: आता है जब मन तिरोहित हो जाता है। सत्य वहां मन में पहले से ही छिपा हुआ है? और मन तुम्हें देखने न देगा उसकी ओर, क्योंकि मन बाहर-बाहर जाने वाला होता है और विषयों कि तरफ देखने में मदद करता है तुम्हारी। निर्विचार समाधि में चेतना संपूरित होती है सत्य से, ऋतम्भरा से। 'ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।' 'ऋतम्भरा' बहुत सुंदर शब्द है। यह 'ताओ' की भांति ही है। शब्द 'सत्य' पूरी तरह इसकी व्याख्या नहीं कर सकता है। वेदों में इसे कहा है : 'ऋत्'। ऋत् का मतलब होता है-अस्तित्व का मूल आधार। 'ऋत्' का मतलब होता है-अस्तित्व का गहनतम नियम। 'ऋत्' केवल सत्य नहीं; सत्य बहुत ही रूखा-सूखा शब्द है और काफी तार्किक गुणवत्ता लिए रहता है अपने में। हम कहते हैं, 'यह सत्य है और वह असत्य है।' और हम निर्णय करते हैं कि कौन-सा सिद्धात सत्य है और कौन-सा सिद्धात असत्य है। सत्य अपने में ज्यादा भाग तर्क का लिए रहता है। यह एक तर्कमय शब्द है। 'ऋत' का अर्थ है. ब्रह्मांड की समस्वरता का नियम; वह नियम जो कि सितारों को गतिमान करता है; वह नियम जिसके द्वारा मौसम आते और चले जाते, सूर्य उदय होता और अस्त हो जाता, दिन के पीछे रात आती, और मृत्यु चली आती जन्म के पीछे। मन निर्मित कर लेता है संसार को और अ-मन तुम्हें उसे जानने देता है जो कि है। 'ऋत' का अर्थ है ब्रह्मांड का नियम, अस्तित्व का ही अंतस्तल। उसे सत्य कहने की अपेक्षा, उसे अस्तित्व का आत्यंतिक आधार कहना बेहतर होगा। सत्य जान पड़ता है कोई दूर की चीज, कोई ऐसी चीज जो तुम से अलग अस्तित्व रखती है। ऋत् है तुम्हारा अंतरतम अस्तित्व और केवल अंतरतम अस्तित्व तुम्हारा ही नहीं है, बल्कि अंतरतम अस्तित्व है सभी का-ऋतम्मरा। निर्विचार समाधि में चैतन्य आपूरित होता है ऋतम्भरा से, ब्रह्मांड की समस्वरता से। कुछ निकाल फेंका नहीं गया होता। कोई द्वंद्व नहीं। हर चीज सुव्यवस्था में उतर चुकी होती है। गलत भी विलीन हो जाता है, वह अलग निकाल नहीं दिया जाता; विष भी विलीन हो जाता है, वह अलग नहीं किया जाता है। कोई चीज अलग नहीं की जाती है।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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