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________________ : तुम्हारे अपने से कुछ किए बिना वह घट रहा होता है। वस्तुतः वह सदा घटता ही रहता है, लेकिन तुम किसी न किसी तरह चूकते ही रहे तुम बहुत तन्मय होते हो विषय के साथ, और इसलिए तुम भीतर देख ही नहीं सकते, नहीं देख सकते उसे जो घट रहा होता है वहां । तुम्हारी आंखें भीतर की ओर नहीं देख रही होतीं। तुम्हारी आंखें देख रही होती हैं बाहर की ओर । तुम उत्पन्न हुए होते हो पहले से ही परिपूर्ण होकर। तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं, तुम्हें एक कदम भी बढ़ाने की जरूरत नहीं। यही अर्थ है प्रसाद का। '... प्रकट होता है आध्यात्मिक प्रसाद।' सदा ही तुम घिरे रहे हो अंधकार से जागरूकता सहित भीतर बढ़ने पर वहां प्रकाश होता है और उस प्रकाश में तुम जान लेते हो कि कोई अंधकार कहीं था ही नहीं तुम्हारा बस अपना तालमेल नहीं बैठा हुआ था स्वयं के साथ; वही था एकमात्र अंधकार । यदि तुम समझ लेते हो इसे तब तो मात्र मौन होकर बैठने से ही हर चीज संभव हो जाती है। तुम यात्रा करते ही नहीं और तुम पहुंच जाते हो लक्ष्य तक। तुम कुछ नहीं करते और हर चीज घट ज है। कठिन है समझना क्योंकि मन तो कहता है, 'कैसे संभव होता है यह? और मैं करता रहा हूं इतना कुछ! तब भी परम आनंद घटित नहीं हुआ, तो कैसे यह घट सकता है बिना कुछ किए ही? हर कोई खोज रहा है प्रसन्नता को और हर कोई चूक रहा है उसे और मन कहता है, निस्संदेह तर्कपूर्ण रूप से कहता है कि यदि इतनी ज्यादा खोज से वह नहीं घटता है तो कैसे वह घट सकता है बगैर खोजे ही? लोग जो बातें कर रहे हैं इन चीजों के बारे में वे जरूर पागल हो गए हैं मनुष्य को तो बहुत परिश्रमपूर्वक खोजना होता है, केवल तभी ऐसा संभव होता है और फिर मन कहे चला जाता है; परिश्रम से खोजो ज्यादा प्रयास करो तेज दौड़ो गति पाओ क्योंकि लक्ष्य तो बहुत दूर है।' कहीं जाने की कोई केवल अ-क्रियात्मक लक्ष्य तुम्हारे भीतर है। किसी तेज गति की कोई आवश्यकता नहीं, और आवश्यकता नहीं। कुछ भी तो करने की आवश्यकता नहीं । आवश्यकता है अवस्था में मौनपूर्ण ढंग से बैठ जाने की, बिना किसी विषय के, संपूर्ण रूप से मात्र स्वयं हो जाने की, इतने पूर्णरूप से केंद्रस्थ हो जाने की कि एक छोटी-सी लहर भी न उठती हो सतह पर, तब वहां होता 1 है प्रसाद तब प्रसाद उतर आता है तुम पर कृपा की वर्षा हो जाती है और तुम्हारा पूरा अस्तित्व भर जाता है एक अज्ञात प्रसाद से। तब यही संसार हो जाता है स्वर्ग। तब यही जीवन हो जाता है दिव्य, और कोई चीज गलत नहीं होती। तब हर चीज उसी तरह होती है जैसी कि होनी चाहिए। तुम्हारे आंतरिक परम आनंद सहित तुम हर कहीं आनंद अनुभव करते हो। एक नए बोध के साथ, एक स्पष्टता के साथ, कोई दूसरा संसार न रहा कोई दूसरा जीवन नहीं, कोई दूसरा समय नहीं । केवल यही क्षण, यही अस्तित्व है सत्य ।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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