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________________ ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।। 49// निर्विचार समाधि में चेतना सत्य से, ऋतम्भरा से संपूरित होती है। चिंतन-1 तन-मनन ध्यान नहीं है। इनमें बड़ा भेद है और केवल परिमाणात्मक ही नहीं बल्कि गुणात्मक भेद है। वे भिन्न धरातलों पर अस्तित्व रखते हैं। उनके आयाम बिलकुल ही भिन्न होते हैं; केवल भिन्न ही नहीं, बल्कि एकदम ही विपरीत होते हैं। यह पहली बात है समझ लेने की; चिंतन संबंध रखता है किसी विषय वस्तु से यह दूसरे की ओर जाती चेतना की एक गति है। चिंतन बहिर्मुखी ध्यान है, - परिधि की ओर बढ़ता हुआ, केंद्र से दूर होता हुआ। ध्यान है केंद्र की ओर बढ़ना, परिधि से दूर हटना, दूसरे से दूर होना चिंतन लक्षित होता है दूसरे की ओर ध्यान लक्षित होता है स्वयं की ओर चिंतन में द्वैत विद्यमान होता है वहां दो होते हैं, चिंतन और चिंतनगत ध्यान में केवल एक ही होता है। ध्यान के लिए अंग्रेजी शब्द 'मेडिटेशन' बहुत अच्छा नहीं है। यह 'ध्यान' या 'समाधि' का वास्तविक अर्थ नहीं देता, क्योंकि मेडिटेशन शब्द से ही ऐसा प्रकट होता है कि तुम किसी चीज पर ध्यान कर रहे हो। इसलिए समझने की कोशिश करना चिंतन है किसी चीज पर ध्यान करना; ध्यान है किसी चीज पर ध्यान नहीं करना, बस स्वयं भर हो रहना। केंद्र से हटकर कोई गति नहीं होती, बिलकुल ही नहीं होती । यह तो बस इतने समग्र रूप से स्वयं जैसा हो जाना है कि एक कंपकपाहट भी नहीं होती; आंतरिक ली अकंप बनी रहती है। दूसरा खो चुका होता है, और केवल तुम होते हो। एक भी विचार वहां नहीं रहता। सारा संसार जा चुका होता है। मन अब वहां रहता ही नहीं; केवल तुम होते हो, तुम्हारी परम शुद्धता में। चिंतन तो किसी चीज की प्रतिच्छवि दिखलाते दर्पण की भांति है; ध्यान है केवल दर्पण होना, किसी चीज की प्रतिच्छवि नहीं दिखलाता। वह केवल विशुद्ध क्षमता है दर्पण होने की; लेकिन वास्तव में कोई चीज प्रतिबिंबित नहीं की जा रही होती। चिंतन सहित उपलब्ध हो सकते हो निर्विचार समाधि को बिना विचार की समाधि । लेकिन निर्विचार में एक विचार बना रहता है, और वह होता है अ-विचार का विचार वह भी अंतिम विचार होता है, एकदम अंतिम, तो भी वह बना तो रहता है, व्यक्ति सचेत होता है इसके प्रति कि कोई विचार नहीं है, वह जानता है कि कोई विचार नहीं है। किंतु अ-विचार को जानना क्या होता है? एक बड़ा परिवर्तन आ चुका होता है-विचार मिट चुके होते हैं, लेकिन अब स्वयं अ-विचार ही एक विषय बन
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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