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________________ था, तो वहां सांप था। तुम्हारी आंखें खबर दे रही थीं कि एक सांप वहां था और तुमने उसी के अनुसार व्यवहार किया। तुम उस जगह से भल निकले। इंद्रियों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। तो फिर प्रत्यक्ष-बोध क्या है? प्रत्यक्ष-बोध कुछ ऐसा है जिसे इंद्रियों के बिना जाना जाता है। इसलिए पहला सम्यक ज्ञान केवल आन्तरिक सत्ता का हो सकता है, क्योंकि ऐसा केवल वहीं है जहां कि इंद्रियों की आवश्यकता न होगी। और हर कहीं उनकी आवश्यकता होगी। यदि तुम मुझे देखना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी आंखों के द्वारा ही मुझे देखना होगा, लेकिन यदि तुम स्वयं को देखना चाहते हो, तो आंखों की आवश्यकता नहीं है। एक अन्धा आदमी भी स्वयं को देख सकता है। यदि तुम मुझे देखना चाहते हो तो प्रकाश की आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन यदि तुम स्वयं को देखना चाहते हो तो अन्धकार भी ठीक है, प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। गहनतम अन्धेरी गुफा में भी तुम स्वयं को जान सकते हो। कोई भी माध्यम नहीं-न प्रकाश, न आंखें, न ही कोई और चीज, कुछ नहीं चाहिए। वह आन्तरिक अनुभव प्रत्यक्ष होता है। और वही प्रत्यक्ष अनुभव सारे सम्यक ज्ञान का आधार है। एक बार तुम उस आन्तरिक अनुभव में मूलबद्ध (स्वटेड) हो जाते हो, फिर बहुत-सी चीजें तुममें घटित होनी शुरू हो जायेंगी लेकिन उन्हें अभी समझना संभव न होगा। यदि कोई अपने केंद्र में गहरे प्रतिष्ठित हो जाता है- अपनी आन्तरिक सत्ता में, यदि कोई इसे प्रत्यक्ष अनुभूति जैसा अनुभव करने लगता है, तो इंद्रियां उसे धोखा नहीं दे सकतीं। वह जाग्रत हो गया है। फिर उसकी आंखें उसे धोखा नहीं दे सकतीं, फिर उसके कान उसे धोखा नहीं दे सकते; तब कोई भी चीज उसे धोखा नहीं दे सकती। धोखा समाप्त हो गया है। तुम धोखा खा सकते हो क्योंकि तुम भांति में जी रहे हो। लेकिन तुम्हें धोखा नहीं मिल सकता, जैसे ही तुम सम्यक जाता हो जाते हो। तब तुम धोखा नहीं खा सकते। तब धीरे- धीरे हर चीज सम्यक ज्ञान का स्वप्न धारण करने लगती है। एक बार तुम स्वयं को जान लो, तब जो कुछ तुम जानते हो, अपने आप ठीक हो जायेगा क्योंकि अब तुम ठीक हो। यही है फर्क जिसे याद रखना होगा। यदि तुम ठीक हो, तो हर चीज ठीक हो जाती है। अगर तुम गलत होते हो, तो हर चीज गलत हो जाती है। इसलिए यह बाहर कुछ करने की बात नहीं है, यह बात है भीतर कुछ करने की। तुम बुद्ध को धोखा नहीं दे सकते। यह असम्भव है। तुम बुद्ध को कैसे धोखा दे सकते हो? वे स्वयं में गहरे प्रतिष्ठित हैं। तुम पारदर्शक हो उनके लिए। तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। इससे पहले कि तुम स्वयं को जानो, वे तुम्हें जानते हैं। तुम्हारे विचार की एक टिमटिमाहट भी उनके दद्वारा स्पष्टतया देख ली जाती है। वे तुम्हारी अंतरतम सता तक प्रवेश करते हैं।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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