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________________ तुम अपने मन का उपयोग कर रहे हो सपनों, कल्पनाओं और पागलपन के लिए। तुम ठीक से इसका उपयोग नहीं कर रहे; तुमने इसके पंख काट दिये हैं। यदि तुम पंख सहित इसका उपयोग करो, तो यह सम्यक ज्ञान बन सकता है। यह प्रज्ञा बन सकता है। लेकिन वह भी मन का ही हिस्सा है, वह भी एक साधन है। उपयोग करने वाला पीछे बना रहता है, उपयोग करने वाले का उपयोग नहीं किया जा सकता। तुम मन का उपयोग कर रहे हो। तुम स्वयं जागरूकता हो। और ध्यान की सारी कोशिशों का अर्थ है इसी चैतन्यता को इसकी शुद्धता में जान लेना, बिना किसी माध्यम के। तुम्हें इसका बोध हो सकता है बिना किसी साधन के। तुम्हें इसका बोध हो सकता है। लेकिन इसका बोध केवल तभी हो सकता है जब मन ने कार्य करना बंद कर दिया हो। जब मन ने कार्य करना बंद कर दिया हो, तब तुम सचेत हो जाओगे कि चैतन्यता वहां है। तुम इससे भरे हुए हो, मन तो केवल एक वाहन था, एक मार्ग। अब यदि तुम चाहो, तुम मन का उपयोग कर सकते हो। यदि तुम न चाहो, तो तम्हें कोई जरूरत नहीं इसके उपयोग की। शरीर और मन दोनों वाहन हैं। तुम वाहन नहीं हो। तुम वाहन के पीछे छिपे मालिक हो। लेकिन तुम इसे पूरी तरह से भूल चुके हो। तुम बैलगाड़ी बन गये हो, तुम वाहन बन गये हो। इसे ही गुरजिएफ ने तादात्म्य कहा है, इसे ही भारत में योगियों ने कहा तादात्म्य-तादात्म्य बना लेना किसी उस चीज के साथ, जो तुम नहीं हो। पाँचवाँ प्रश्न: कृपया समझाइए यह कैसे संभव है कि केवल देखने द्वारा साक्षी द्वारा मस्तिष्क की कोशिकाओं की रेकार्डिग्ज, विचार-प्रक्रिया के स्रोत समाप्त हो सकते हैं वे समाप्त कभी नहीं होते लेकिन साक्षी होने से तादात्म्य टूट जाता है। संबोधि पाने के बाद बुद्ध चालीस वर्ष तक अपने शरीर में रहे। शरीर समाप्त नहीं हुआ। चालीस वर्ष तक वे बोलते रहे थे, लगातार समझाते रहे, लोगों को समझाते रहे कि उन्हें क्या घटित हुआ था और वही उन्हे कैसे घटित हो सकेगा। वे इसी मन का उपयोग कर रहे थे, यह मन समाप्त नहीं हो गया था। और जब बारह वर्ष बाद वे अपने शहर में वापस आये, तो उन्होंने अपने पिता को पहचान लिया, पली को पहचाना, बेटे को पहचाना। मन था वहां, स्मृति थी उसमें, वरना पहचान असंभव हो गयी होती। मन वास्तव में समाप्त नहीं हो जाता। जब हम कहते हैं कि मन समाप्त हो जाता है, हमारा मतलब होता है कि इसके साथ बना तुम्हारा तादात्म्य टूट जाता है। अब तुम जानते हो कि वह मन है यह 'मैं' हूं। पुल टूट चुका है। अब मन मालिक नहीं है। यह तो बस एक उपकरण हो गया है, यह
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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