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________________ मिलते हैं। तुमने कभी जीवन से मांगा नहीं, और जीवन तुम्हें बहुत से उपहार देता है। लेकिन तुम हर देन को नष्ट कर देते हो। और वरदान लगातार फैलता जाता है; वह विकसित हो सकता है, क्योंकि जिंदगी तुम्हें कभी कोई मुर्दा चीज नहीं देती है। यदि प्रेम तुम्हें दिया गया है, वह विकसित हो सकता है। वह अज्ञात आयामों तक विकसित हो सकता है, लेकिन पहले ही क्षण से तुम उसे नष्ट कर देते हो। यदि ध्यान तुममें घटित हो गया है, तो उसे भूल जाओ और केवल धन्यवाद अनुभव करो उस दिव्यता के प्रति। केवल कृतज्ञ अनुभव करो। और अच्छी तरह से याद रखना कि तुम्हारे पास उस पर दावा करने की क्षमता नहीं है; तुम्हें किसी भी तरह से अधिकार नहीं दिया गया है उसे पाने का। वह एक देन है। वह भगवत्ता का एक प्रवाह है। उपलब्धि को भूलो। उसकी अपेक्षा मत बनाओ, उसकी मांग मत करो। अगले दिन वह फिर आयेगा कहीं ज्यादा गहरे, ऊंचे, विराट रूप में। वह फैलता चला जायेगा,लेकिन हर रोज उसे मन से ज्जा हो जाने देना। संभावनाओं का कहीं कोई अंत नहीं है। वह असीम है। सारा ब्रह्मांड तुम्हारे लिए आनंदमग्न हो जायेगा। लेकिन तुम्हारे मन को मिटना ही होगा। तुम्हारा मन एक पागलपन है। इसलिए जब मैं कहता हैं कि केवल दो विकल्प हैं, पागलपन या ध्यान,तो मेरा मतलब होता है-मन और ध्यान। यदि तुम्हारा होना मन तक ही सीमित रहता है, तो तुम पागल ही रहोगे। जब तक तुम मन का अतिक्रमण नहीं करते, तब तक तुम पागलपन का अतिक्रमण नहीं कर सकते। अधिक से अधिक तुम समाज के काम-चलाऊ सदस्य हो सकते हो, बस इतने ही। और तुम समाज के कामचलाऊ, उपयोगी सदस्य हो सकते हो क्योंकि यह सारा समाज तुम जैसा ही है। हर कोई पागल है, इसीलिए पागलपन सामान्य स्थिति है। होश में आओ। और मत सोचो कि दूसरे पागल हैं, गहराई से अनुभव करो कि तुम पागल हो और इसके लिए कुछ करना ही है। तत्क्षण! यह एक संकटकालीन स्थिति है। इसे स्थगित मत करो क्योंकि एक ऐसी घड़ी आ सकती है जब तुम कुछ नहीं कर सकते। शायद तुम इतने पागल हो जाओ कि तुम कुछ भी करने के योग्य न रही। अभी ही तुम कुछ कर सकते हो। अभी तक तुम सीमा में हो। कुछ किया जा सकता है; कुछ प्रयास किये जा सकते है;ढांचा बदला जा सकता है। लेकिन एक घड़ी आ सकती है जब तुम कुछ कर नहीं सकते; जब तुम पूरी तरह से टूट-फूट जाते हो और जब तुमने होश भी गंवा दिया होता है। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम पागल हो, तो यह बहुत आशापूर्ण लक्षण है। यह संकेत है कि तुम अपनी वास्तविकता के प्रति सचेत हो। द्वार वहां है। तुम वास्तव में स्वस्थचित्त हो सकते हो। कम से कम इतनी स्वस्थचित्तता वहां है कि तुम स्थिति समझ सकते हो।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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