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________________ है, यह व्यर्थ है; यह निरर्थक है और यह कहीं नहीं ले जाता। यह मन तुम्हारी आख बंद कर देता है, तुम्हें मूर्च्छित करता है और कभी भी सत्य तुम्हें प्रगट हो सके इसका कोई मौका नहीं देता। यह मन तुम्हें सत्य से बचाता है। तुम्हारा मन एक नशा है। जो है-मन उसके विरुद्ध है। इसलिए जब तक तुम अपने मन को, अपने अब तक के होने के ढंग को पूरी तरह व्यर्थ हुआ न जान लो; जब तक इस मन को तुम बेशर्त छोड़ न सको, तब तक तुम योग-मार्ग में प्रवेश नहीं कर सकते। __ कई व्यक्ति योग में उत्सुक होते हैं, लेकिन बहुत कम लोग ही योग में प्रवेश कर पाते हैं। क्योंकि तुम्हारी रुचि भी मन के कारण ही बनती है। शायद तुम आशा बनाते हो कि अब योग के द्वारा तुम कुछ पा लोगे; कुछ पाने का प्रयोजन तो बना ही रहता है। तुम सोचते हो कि शायद योग तुम्हें एक सम्पूर्ण योगी बना देगा; तुम आनंदपूर्ण अवस्था तक पहुंच जाओगे; तुम ब्रह्म में लीन हो जाओगे; शायद तुम्हें सच्चिदानंद-अस्तित्व, चैतन्य और परमानंद मिल जाये! और अगर यही बातें योग में रस लेने का, अभिरुचि बनाने का कारण है तो कभी भी तुम्हारा मिलन उस पथ से नहीं हो सकता, जिसे योग कहते हैं। इस मनोदशा में तो तुम इस मार्ग के पूर्णत: विरुद्ध हो; तो तुम बिलकुल ही विपरीत दिशा में चल रहे हो। योग का अर्थ है कि अब कोई आशा न बची, अब कोई भविष्य न रहा, अब कोई इच्छा न बची। अब व्यक्ति तैयार है उसे जानने के लिए, जो है। अब कोई रुचि न रही इस बात में कि क्या हो सकता है, क्या होना चाहिए या कि क्या होना चाहिए था। जरा भी रस न रहा। अब केवल उसी में रस है-जो है। क्योंकि केवल सत्य ही तुम्हें मुक्त कर सकता है, केवल वास्तविकता ही मुक्ति बन सकती है। परिपूर्ण निराशा की जरूरत है। ऐसी निराशा को ही बुद्ध ने दुख कहा है। और अगर सचमुच ही तुम्हें दुख है, तो आशा मत बनाओ, क्योंकि तुम्हारी आशा दुख को और आगे बढ़ा देगी। तुम्हारी आशा एक नशा है जो तुम्हें और कहीं नहीं, केवल मृत्यु तक जाने में सहायक हो सकती है। तुम्हारी सारी आशाएं तुम्हें केवल मृत्यु में पहुंचा सकती है। वे तुम्हें वहीं ले ही जा रही हैं। पूर्ण स्वप्न से आशा रहित हो जाओ। अगर कोई भविष्य नहीं बचता तो आशा भी नहीं बचती। बेशक यह कठिन है। सत्य का सामना करने के लिए बड़े साहस की जरूरत है। लेकिन देरअबेर वह क्षण आता है। हर आदमी के जीवन में वह क्षण आता ही है, जब वह परिपूर्ण निराशा का अनुभव करता है। नितान्त अर्थहीनता का भाव घटित होता है उसके साथ। जब उसे बोध होता है कि वह जो कुछ कर रहा है, व्यर्थ है; जहां कहीं भी जा रहा है, कहीं पहुंच नहीं पा रहा है; कि सारा जीवन अर्थहीन है-तब अनायास ही आशाएं गिर जाती हैं, भविष्य खो जाता है और तब पहली बार वह वर्तमान के साथ लयबदध होता है। तब पहली बार सत्य से आमना-सामना होता है।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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