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________________ उपहार दे सकते हो, लेकिन प्रमाणित कुछ नहीं होता। तुम चुंबन और आलिंगन कर सकते हो, और तुम गा सकते हो और तुम नाच सकते हो, लेकिन प्रमाणित कुछ नहीं होता। हो सकता है तुम अभिनय भर कर रहे हो। तो यह सम्यक ज्ञान मन की पहली वृत्ति है। ध्यान इस वृत्ति तक ले जाता है। और जब तुम ठीक से जान सकते हो तब प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं रहती। केवल तभी मन छोड़ा जा सकता है; उससे पहले नहीं। जब प्रमाण देने की कोई आवश्यकता नहीं है, तब मन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मन एक तार्किक उपकरण तुम्हें हर क्षण मन की जरूरत है। तुम्हें सोचना पड़ता है यह जानने के लिए कि क्या सही और क्या गलत है। हर क्षण चुनाव हैं, विकल्प हैं तुम्हें चुनना ही पड़ता है केवल जब प्रमाण का केंद्र कार्यशील होता है, जब सम्यक ज्ञान कार्य करता है, तब तुम मन को छोड़ सकते हो, क्योंकि चुनने का अब कोई अर्थ नहीं है। तुम चुनावरहित हो जाते हो जो कुछ सही है, तुम्हारे सामने उद्घाटित हो जाता है। संत वह है जो कभी चुनता नहीं वह कभी बुरे के विरुद्ध अच्छे को नहीं चुनता। वह तो केवल उस दिशा की ओर बढ़ता है जो कि शुभ का है। वह तो सूर्यमुखी के फूल जैसा होता है। जब सूर्य पूर्व में होता है, तब यह फूल भी पूर्व की ओर मुड़ जाता है। यह चुनता कभी नहीं। जब सूर्य पश्चिम की ओर छूता है, यह फूल पश्चिम की ओर मुड़ जाता है। यह सूर्य के साथ ही चलता रहता है। इसने बढ़ना चुना नहीं है, इसने निर्णय नहीं किया है। इसने निश्चय नहीं किया- 'अब मुझे बदना चाहिए। क्योंकि सूर्य पश्चिम की ओर बढ़ गया है।' संत इस फूल की भांति है। जहां कहीं शुभ है वह बस उस ओर बढ़ जाता है तो जो कुछ वह करता है, शुभ है। उपनिषद कहते हैं- 'संतो का मूल्यांकन मत करो।' तुम्हारे साधारण मापदंड न देंगे। तुम्हें बुरे के विरुद्ध अच्छे को चुनना पड़ता है, लेकिन संत चुनता नहीं है। जो अच्छा है वह उस ओर बस बढ़ जाता है और तुम उसे बदल नहीं सकते क्योंकि यह विकल्पों का प्रश्न नहीं है। यदि तुम कहो, 'यह बुरा है।' वह कहेगा, 'ठीक है, हो सकता है यह बुरा हो लेकिन में इसी भांति चलता हूं। इस तरह ही बहता है मेरा अंतस अस्तित्व।' जो जानते हैं-और उपनिषदों के समय लोग जानते थे वे निर्णय कर चुके है कि 'हम किसी संत की आलोचना नहीं करेंगे। एक बार व्यक्ति स्वयं में केंद्रित हो जाता है, एक बार व्यक्ति ध्यान को प्राप्त कर लेता है एक बार व्यक्ति मौन हो जाता है और मन छूट जाता है, तो वह हमारे नैतिक मापदंड से परे है, हमारी परंपरा से परे है। वह हमारी सीमाओं से बाहर है। यदि हममें पीछे चलने की क्षमता है, तो हम उसके पीछे चल सकते हैं। यदि हम पीछे नहीं चल सकते, तो हम असहाय हैं। लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता। और हमें निर्णय नहीं देना चाहिए।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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