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________________ आत्मा की आवश्यकताएं हैं; धर्म उन आवश्यकताओं को परिपूर्ण करता है। शरीर की आवश्यकताएं हैं, विज्ञान उन आवश्यकताओं को पूरा करता है। मन की आकांक्षाएं हैं और वह उन्हें पूरा करने का प्रयत्न करता है, लेकिन वह उन्हें पूरा कर नहीं सकता है। मन तो मात्र सीमास्थल है जहां देह और आत्मा का मिलन होता है। जब देह और आला पृथक होते हैं, तब मन बिलकुल तिरोहित हो जाता है। उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। छठवां प्रश्न: अब इस प्रश्न को ही लो- 'आपने कहा कि आवश्यकताएं शरीर से जुड़ी है और आकांक्षाएं मन से। इन दोनों में से कौन-सी चीज हमें आप तक ले आयी?' यहां मेरे आस-पास तीन प्रकार के व्यक्ति है। एक वे हैं जो आये है उनकी शारीरिक आवश्यकताओं के कारण। वे कामवासना के कारण हताश हैं, प्रेम के कारण हताश हैं, शरीर के साथ दुखी हैं। वे आते है और उनकी मदद की जा सकती है। उनकी समस्या ईमानदार है। और एक बार उनकी शारीरिक आवश्यकताएं तिरोहित हो जाती है, तो आत्मिक आवश्यकताएं उठ खड़ी होंगी। फिर है दूसरा वर्ग, जो आया है आत्मिक आवश्यकताओं के कारण। उनकी मदद भी की जा सकती है क्योंकि उनके पास वास्तविक आवश्यकताएं हैं। वे अपनी कामवासना की समस्याओं के लिए नहीं पहंचे हैं, प्रेम की समस्याओं या शारीरिक बेचैनियों या बीमारियों के कारण नहीं आये। वे इसके लिए नहीं आये। वे सत्य को खोजने आये है। वे जीवन के रहस्य में प्रवेश करने को आये हैं, वे जानने को आये है कि यह अस्तित्व है क्या। और फिर है एक तीसरा वर्ग, और तीसरा ज्यादा बड़ा है इन दोनों से। वे लोग आये है अपने मन की आकांक्षाओं के कारण। उनकी मदद नहीं की जा सकती है। वे कुछ समय तक मेरे आस-पास बने रहेंगे और फिर गायब हो जायेंगे या, यदि वे ज्यादा समय तक मेरे पास बने रहे तो मैं उन्हें या तो शारीरिक आवश्यकताओं तक ला सकता हूं या आत्मिक आवश्यकताओं तक, लेकिन उनकी मनोगत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। क्योंकि पहली बात तो यह है कि वे आवश्यकताएं हैं ही नहीं। कुछ लोग जो यहां हैं, वे अहंकार के कारण हैं। संन्यास उनके लिए एक अहंकार-यात्रा है। वे विशिष्ट बन गये हैं। असाधारण। वे जीवन में असफल हो चुके हैं। वे राजनैतिक शक्ति नहीं पा सके; वे सांसारिक प्रसिद्धि तक नहीं पहुंचे; वे धन,सम्पति और भौतिक पदार्थ प्राप्त नहीं कर सके। वे स्वयं को कुछ नहीं अनुभव करते, और अब मै उन्हें दे देता हं संन्यास। अपनी ओर से कुछ बिना वे महत्वपूर्ण हो गये हैं, कुछ विशिष्ट। मात्र गैरिक वस्त्र धारण करने से वे सोचते हैं कि अब वे
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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