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________________ आपने कहा कि आवश्यकताएं शरीर से जुड़ी है और आकांक्षाएं मन से। इन दोनों में से कौनसी चीज हमें आप तक ले आयी? इससे पहले कि मैं इसका उत्तर दूं एक बात और समझ लेनी है; तब तुम्हारे लिए इस प्रश्न के उत्तर को समझना संभव होगा। तुम केवल शरीर और मन ही नहीं हो, तुम कुछ और भी होआत्मा हो, आत्म-तत्व हो। तुम हो आत्मन। शरीर की आवश्यकताए हैं आत्मा की भी आवश्यकताएं होती हैं। इन दोनो के ठीक बीच मे मन है जिसकी आकांक्षाएं हैं। शरीर की आवश्यकताए है-भूखप्यास को परितृप्त करना। सिर पर छत की जरूरत है, भोजन की आवश्यकता है, पानी की आवश्यकता है। शरीर की आवश्यकताएं हैं लेकिन मन के पास आकाक्षाएं है। इसे किसी चीज की जरूरत नहीं, तो भी मन झूठी आवश्यकताएं गढ लेता है। आकांक्षा एक झूठी आवश्यकता है । यदि तुम इसकी ओर ध्यान नहीं देते, तो तुम हताशा अनुभव करते हो, किसी असफल की भांति ही। यदि तुम इसकी ओर ध्यान देते हो तो कुछ प्राप्त नहीं होता। क्योंकि पहली बात, वह कभी आवश्यकता थी ही नहीं। आवश्यकता की भांति कभी अस्तित्व न था उसका। तुम परिपूर्ण कर सकते हो आवश्यकता को; तुम आकांक्षा को पूर्ण नहीं कर सकते। आकांक्षा एक सपना है। सपने को परिपूर्ण नहीं किया जा सकता; इसकी जड़ें नहीं है न धरती में, न ही आकाश में। इसकी जड़ें नहीं है। मन एक स्वप्नमयी घटना है। तम प्रसिदधि की, मान-सम्मान की मांग करते हो। और यदि तुम प्राप्त कर भी लेते हो तो तुम पाओगे कुछ भी नहीं क्योंकि प्रसिद्धि किसी आवश्यकता को संतुष्ट न कर पायेगी। यह कोई आवश्यकता नहीं है। तम हो सकते प्रसिदध। यदि सारा संसार तुम्हारे बारे में जान ले, तो क्या-फिर क्या? क्या घटेगा तुम्हें? क्या कर सकते हो इसका? यह न तो भोजन है और न पानी। जब सारा संसार तुम्हें जान लेता है, तब तम हताश अनुभव करते हो। क्या करोगे इसका? यह व्यर्थ है। आत्मा की भी आवश्यकताएं हैं। जैसे कि शरीर को आवश्यकता है भोजन की, बिलकुल उसी तरह आत्मा को आवश्यकता है भोजन की। निस्संदेह तब भोजन परमात्मा है। तुम्हें याद होगा जीसस बहुत बार अपने शिष्यों से कहते रहे, 'मुझे खाओ। मैं हूं तुम्हारा भोजन। और मुझे ही होने दो तुम्हारा पेय।' क्या मतलब है उनका? यह एक बिलकुल ही भिन्न आवश्यकता है। जब तक कि यह संतुष्ट न हो, जब तक तुम परमात्मा का भोजन न कर सको, उसे खाकर जब तक तुम परमात्मा ही न हो जाओ, उसे आत्मसात न कर लो, जब तक वह रक्त की भांति तुम्हारी आत्मा में प्रवाहित ही न होने लगे, जब तक वह तुम्हारी चेतना ही न बन जाये-तुम असंतुष्ट ही बने रहोगे।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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