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________________ रहते। अब तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम तीनों के द्वार बंद कर सकते हो, लेकिन उसके पास चाबी है चौथे की और वह हमेशा संपर्क में है तब चाहे तुम मर भी जाओ, इससे कुछ नहीं होता। यदि तुम पृथ्वी के बिलकुल अंत तक चले जाओ, यदि तुम चांद पर चले जाओ, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, उसके पास चौथे की चाबी है और वस्तुतः सच्चा गुरु कभी भी चाबी रखता नहीं। वह सिर्फ खोल देता है चौथे को और चाबी फेंक देता है समुद्र में अतः कोई संभावना नहीं होती इसे चुराने की या कुछ करने की कुछ नहीं किया जा सकता। । मैंने तुममें से बहुतों के चौथे द्वार की चाबी गढ़ ली और फेंक दी है। अतः स्वयं को नाहक परेशान मत करो, यह व्यर्थ है। अब कुछ नहीं किया जा सकता। एक बार चौथा द्वार खुल जाता है तो कोई समस्या नहीं रहती । सारी समस्याएं इससे पहले की ही होती है। ठीक अंतिम क्षण गुरु तैयार कर रहा होता है चाबी क्योंकि चाबी कठिन होती है। लाखों जन्मों से द्वार बंद रहा है, इसने तमाम तरह की जंग इकट्ठी कर ली है। यह दीवार की भांति लगता है, द्वार की भांति नहीं। ताला कहां है, इसे खोजना कठिन होता है। और हर किसी के पास अलग ताला है। अतः कहीं कोई मास्टर की कोई परम कुंजी नहीं है। एक चाबी काम न देगी क्योंकि हर कोई उतना ही अनूठा है जितना कि तुम्हारे अंगूठे का चिह्न कोई दूसरा वह चिह्न कहीं नहीं पा सकता न तो अतीत में, न ही भविष्य में तुम्हारे अंगूठे का चिहन तो बस तुम्हारा होगा, एकमेव घटना । यह कभी दोहराई नहीं जाती है। तुम्हारे अंतर-कोष्ठ का ताला भी तुम्हारे अंगूठे के चिह्न की भांति ही होता है। यह नितांत वैयक्तिक होता है। कोई परम कुंजी मदद नहीं कर सकती। इसीलिए गुरु की जरूरत होती है, क्योंकि परम कुंजी खरीदी नहीं जा सकती है। वरना एक बार चाबी तैयार हो जाये, तो हर किसी का द्वार खोला जा सकता है। नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के पास अलग ढंग का द्वार है, अलग प्रकार का ताला है। उस ताले के बंद होने, खुलने का अपना ढंग होता है। गुरु को ध्यान देना है और खोजना है और चाबी गठनी है कोई विशिष्ट चाबी एक बार तुम्हारा चौथा द्वार खुल जाता है, तब गुरु सतत तुम्हारे साथ गहन संपर्क में होता है। तुम चाहे उसे बिलकुल ही भूल जाओ; इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। तुम उसे याद न करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। गुरु देह छोड़ दे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जहां कहीं वह हो, जहां कहीं तुम हो, द्वार खुला ही होता है। और यह द्वार समय-स्थान के पार रहता है। इसीलिए यह परम मन है, यह परम चेतन है। 'हम अपनी मूर्च्छित और अहंकारी अवस्था में सदा ही गुरु के संपर्क में नहीं होते लेकिन गुरु क्या सदा हमारे संपर्क में होता है? 'हां, लेकिन सिर्फ तभी जब चौथा द्वार खुला हो अन्यथा तीसरे
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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