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________________ वे बहत काफी हैं। वे काफी हैं शिष्यों का मार्ग-निर्देशन करने को; वे पर्याप्त है शिष्यों की मदद करने को। किसी चीज की जरूरत नहीं है। लेकिन फिर भी वे बंधे होते हैं। और जो अनबंधा होता है वह सदा ही एक अच्छी मदद होता है। तुम नहीं देख सकते सारी दिशाओं में, लेकिन वह देख सकता है। गुरु भी कार्यवाही कर सकता है और देख सकता है, तो भी यह करना पड़ता है। यही तो कर रहा हूं मैं-कोई निर्देशक ऊपर नहीं; मुझे निर्देश देने को कोई नहीं है; मुझे निरंतर कार्य में बढ़ते रहना पड़ता है। इस और उस दिशा से देख रहा हूं इस दिशा से और उस दिशा से ध्यान दे रहा हूं। तुम्हारी ओर देख रहा हूं बहुत सारे दृष्टिकोणों से जिससे तुम्हारी समग्रता देखी जा सके। मैं तुम्हारे आर-पार देख सकता हं लेकिन मुझे तुम्हारे चारों ओर गतिमान होना पड़ता है। मात्र एक झलक, एक सरसरी दृष्टि मदद न देगी क्योंकि वह झलक देह द्वारा सीमित हो जायेगी। मै टॉर्च लिये हुए हूं और तुम्हारे चारों ओर घूम कर देख रहा हूं हर संभव दृष्टिकोण से देख रहा हूं। एक तरह से यह कठिन है क्योंकि मुझे ज्यादा कार्य करना पड़ता है। एक तरह से यह बहुत सुंदर है कि मुझे ज्यादा कार्य करना पड़ता है और यह कि मुझे प्रत्येक संभव दृष्टिकोण से देखना पड़ता है। मैं बहुत सारी चीजों को जान लेता हूं जिन्हें बने-बनाये तैयार आदेश अपने में नहीं समा सकते हैं। और जब गुरुओं के गुरु, जो पतंजलि की विचारधारा में भगवान हैं-अनुदेश देते हैं, तो वे कोई व्याख्या, कोई स्पष्टीकरण नहीं देते; वे तो मात्र अनदेश दे देते है। वे केवल कह देते हैं, 'यह करो; वह मत करो।' जो इन अनदेशों के पीछे चलते हैं, वे ऐसे लगेंगे जैसे कि वे बने-बनाये तैयार हों। ऐसा होगा ही क्योंकि वे कहेंगे, 'ऐसा करो।' उनके पास स्पष्टीकरण नहीं होगा। और बहुत सांकेतिक अनुदेश दिये जाते है। स्पष्टीकरण बहुत कठिन होता है। और उसकी कोई जरूरत भी नहीं होती, क्योंकि जब अनदेश दिये जाते हैं उच्चतर दृष्टिकोण से तो वे ठीक ही होते हैं। मात्र आज्ञाकारी ही होना होता है। गुरु आदेशग्राही होता है गुरुओं के गुरु के प्रति, और तुम्हें गुरु के आदेश का पालन करना होता है। आज्ञापालन पीछे चला ही आता है। यह सेना-तंत्र की भांति है; बहुत ज्यादा स्वतंत्रता नहीं होती। ज्यादा की अनुमति नहीं दी जाती। आशा तो आज्ञा है। यदि तुम स्पष्टीकरण की मांग करते हो, तो तुम विद्रोही होते हो और यही है समस्या, बड़ी समस्याओं में से एक है जिसका सामना अब मानवता को करना है। अब मनुष्य आज्ञाकारी नहीं हो सकता उस तरह, जैसे कि अतीत में था। कोई एकदम ही नहीं कह सकता, 'यह मत करो।' स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है। और कोई साधारण स्पष्टीकरण काम न देगा। बड़ी प्रामाणिक स्पष्टता की जरूरत होती है क्योंकि मानवता का मन ही आज्ञाकारी नहीं रहा है। अब विद्रोहात्मकता भीतर ही निर्मित हुई होती है; अब एक बच्चा जन्मजात विद्रोही होता है।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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