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________________ उसने अपने मन की ही सुनी और वह अधिकाधिक मुसीबत में पड़ता रहा है। अब वह जगह आ गयी जहां वह अनुभव करता है, 'यह बहुत हुआ।' तब वह आता है गुरु के पास और समर्पण कर देता है। यह है अनुशासन, पहला सोपान। वह कहता है, 'अब मैं आपकी सुनूंगा। मैंने अपने मन की बहुत सुन ली है। मैं अनुयायी रहा मन का, उसका शिष्य रहा, और यह बात कहीं नहीं ले जाती। मैंने यह जान लिया है। अब आप मेरे गुरु हैं। इसका अर्थ है, अब आप मेरे मन हैं। आप जो कुछ कहते हैं, मैं सुनूंगा। जहां कहीं आप ले जाते हैं, मैं जाऊंगा। मैं आपसे पूछंगा नहीं क्योंकि वह पूछना आयेगा मेरे मन से।' शिष्य वह है जिसने जीवन से एक बात सीख ली है, कि मन है गड़बड़ी मचाने वाला; मन है उसके दुखों का मूल कारण। मन हमेशा कह देता है, मेरे दुखों का कारण कोई दूसरा है, मैं नहीं हूं। 'शिष्य वह है जो जान चुका है कि यह तो एक चालाकी,है, यह मन का एक जाल है। यह हमेशा कहता है, कोई और है जिम्मेवार; मैं जिम्मेवार नहीं हैं। इस तरह यह स्वयं का बचाव करता है, संरक्षण करता है, स्वयं को सुरक्षित बनाये रहता है। शिष्य वह है जो समझ गया है कि यह गलत है, कि यह चालाकी है मन की। वह अनुभव करने लगा है मन के इस सारे पागलपन को। यह तुम्हें आकांक्षाओं की ओर ले जाता है; आकांक्षाएं तुम्हें ले जाती हैं हताशा की ओर। यह तुम्हें ले जाता सफलता की ओर; प्रत्येक सफलता बन जाती है विफलता। यह तुम्हें आकर्षित करता है सुन्दरता की ओर; प्रत्येक सुन्दरता सिद्ध होती है असुन्दरता। यह तुम्हें आगे ही आगे ले जाता है, यह कोई वादा पूरा नहीं करता। यह तुम्हें आशा दिलाता है, लेकिन नहीं, एक भी आशा पूरी नहीं ती। यह तुम्हें संदेह देता है। संदेह हृदय में बन जाता है एक कीड़ा-एकदम विषैला। यह तुम्हें आस्था रखने नहीं देता, और बिना आस्था के कोई विकास नहीं होता। जब तुम समझ लेते हो यह सारी बात, केवल तभी तुम शिष्य हो सकते हो। जब तुम गुरु के पास आते हो, तो प्रतीकात्मक रूप से तुम अपना सिर उसके चरणों पर रख देते हो। यह होता है तुम्हारे सिर का गिरना। तुम्हारा सिर उसके चरणों पर रख देने का यही है अर्थ। तुम कहते हो,' अब मैं सिरविहीन बना रहूंगा। अब जो कुछ तुम कहते हो वही मेरा जीवन होगा। 'यह होता है समर्पण। गुरु के शिष्य होते हैं जो मरने के लिए और पुन: जन्मने के लिए तैयार रहते हैं। फिर आती है तीसरी कोटि-गुरुओं का प्रधान गुरु। पहली कोटि; विद्यार्थियों का शिक्षक; दूसरी-शिष्यों का गुरु होता है;और फिर तीसरी, गुरुओं का गुरु होता है। पतंजलि कहते हैं कि जब गुरु भगवान हो जाता है और भगवान होने का अर्थ होता है समय के बाहर होना; वह हो जाना जिसके लिए समय अस्तित्व नहीं रखता है, जिसके लिए समय कुछ है नहीं; वह हो जाना जो समयातीतता को समझ चुका है; अनंतता को समझ चुका है, जो केवल बदला ही नहीं और जो केवल
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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