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________________ यदि तुम कोई चीज रोके हुए नहीं रहते तो कहां होते हो तुम? तुम कार्य के साथ बिलकुल एक हो गये होते हो। कोई कर्ता नहीं रहा वहां। जब कोई कर्ता नहीं रहता, तो प्रामाणिक होता है। कैसे हो सकते हो तुम गंभीर? गंभीरता संबंध रखती है कर्ता से। तो मसजिदों में, मंदिरों में, चर्चों में, तुम दो प्रकार के व्यक्ति पाओगे-एक तो वे जो वास्तविक हैं और वे जो गंभीर हैं। गंभीर लोगों के बड़े नीरस चेहरे होंगे जैसे कि वे बड़ा महान कृत्य कर रहे हों-कोई पवित्र बात, कोई आध्यात्मिक बात कर रहे हों। यह भी अहंकार है। मानो तुम कोई महान बात कर रहे हो। जैसे कि तुम सारे संसार को अनुगृहीत कर रहे हो क्योंकि तुम प्रार्थना कर रहे हो! जरा धार्मिक व्यक्तियों की ओर देखना-तथाकथित धार्मिक। वे ऐसे चलते हैं जैसे कि वे सारे संसार को अनुगृहीत कर रहे हैं। वे पृथ्वी का सार-तत्व हैं जैसे। यदि वे मिट जायें तो सारा अस्तित्व मिट जायेगा। वे इसे संभाले हुए हैं। उन्हीं के कारण जीवन अस्तित्व रखता है; उनकी प्रार्थनाओं के कारण ही। तुम उन्हें गंभीर पाओगे। गंभीरता संबंधित है अहंकार से, कर्ता से। एक पिता जो कहीं दुकान में, आफिस में काम कर रहा है उसकी ओर देखो। यदि वह अपनी पत्नी और बच्चों से प्रेम नहीं करता, तो वह गंभीर होगा क्योंकि यह एक कर्तव्य होता है। इसे करके, वह आस-पास के हर व्यक्ति को अनुगृहीत कर रहा होता है। वह हमेशा कहेगा, 'यह मैं अपनी पत्नी के लिए कर रहा हं; यह तो मैं अपने बच्चों के लिए र रहा हूं।' और अपनी गंभीरता द्वारा यह आदमी अपने बच्चों के गले पड़ा एक जड़ पत्थर बन जायेगा। और वे इस पिता को कभी माफ न कर पायेंगे। क्योंकि उसने प्रेम कभी किया नहीं। यदि तम प्रेम करते हो, तो तम ऐसी बातें कभी नहीं कहते। यदि तम बच्चों से प्रेम करते हो, तो तुम तुम्हारे आफिस हंसी-खुशी, नाचते-कूदते जाते हो। तुम उन्हें प्रेम करते हो, अत: यह कोई अनुगृहीत करना नहीं है। तुम कोई कर्तव्य भर पूरा नहीं कर रहे, यह तुम्हारा प्रेम होता है। तुम खुश हो कि तुम्हें अपने बच्चों के लिए कुछ करने दिया गया है। तुम प्रसन्न हो और पुलकित, कि तुम अपनी पत्नी के लिए कुछ कर सकते हो। प्रेम इतना असहाय अनुभव करता है क्योंकि प्रेम बहुत चीजें करना चाहता है और उन्हें कर सकता नहीं। प्रेम हमेशा अनुभव करता है, जो कुछ मैं कर रहा हूं वह उससे कम है जो कि किया जाना चाहिए। और कर्तव्य? कर्तव्य हमेशा अनुभव करता है, मैं जरूरत से ज्यादा कर रहा हूं। कर्तव्य गंभीर बन जाता है, प्रेम प्रामाणिक होता है, निष्कपट होता है। और प्रेम है समग्रता से किसी व्यक्ति के साथ होना। इतनी समग्रता से व्यक्ति के साथ होना कि द्वैत तिरोहित हो जाये। यदि ऐसा होना कुछ क्षणों के लिए भी हो, तो वैत नहीं रहता। तब दो में एक का अस्तित्व होता है, सेत् आ बनता है। प्रेम समग्र होता है,विचारपूर्ण कभी नहीं। और जब कभी तुम किसी चीज में अपना समग्र अस्तित्व लगा सको, यह प्रेम बन जाता है। यदि तुम एक माली हो और तुम इसे प्रेम करते हो तो तुम इस कार्य में तुम्हारा समग्र अस्तित्व ले आते हो।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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