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________________ पतंजलि तुम्हें कोई आशा नहीं देंगे। तुम जितना अपना आदर करते हो, उससे कहीं अधिक आदर करते हैं वे तुम्हारा। वे सोचते हैं, तुम परिपक्व हो और खिलौने तुम्हारी मदद न करेंगे। जो भी अवस्था है उसके प्रति जागरूक होना अच्छा है। पर जैसे ही मैं कहता हूं 'समग्र निराशा' की बात तो तुम्हारा मन कहता है, यह तो निराशावादी लगता है। क्योंकि तुम्हारा मन आशा के द्वारा ही जीवित है, तुम्हारा मन इच्छाओं से, अपेक्षाओं से चिपका रहता है। अभी तुम इतने दुखी हो कि तुम आत्महत्या कर लेते अगर कोई आशा न होती। यदि पतंजलि वास्तव में सही है, तो तुम्हारा क्या होगा? अगर कोई आशा न हो, कोई भविष्य न हो और तुम अपने वर्तमान में फेंक दिये जाओ, तो तुम आत्महत्या कर लोगे। तब जीने के लिए कोई आधार नहीं होता। तुम किसी उस बात के लिए जीते हो जो कभी और कहीं घटित होगी। वह घटित होने वाली नहीं है लेकिन ऐसी आशा कि वह घटित हो सकती है, तुम्हारी सहायता करती है, जिंदा रहने के लिए। ___ इसलिए मैं कहता हूं कि जब तुम उस बिंदु तक आ गये हो जहां आत्महत्या अर्थपूर्ण बन गयी है, जहां जीवन ने अपने सारे अर्थ खो दिये हैं, जहां तुम स्वयं को मार सकते हो, उसी घडी में योग संभाव्य बनता है। क्योंकि तुम अपने को बदलने के लिए राजी ही न होओगे, जब तक कि जीवन की यह तीव्र व्यर्थता तुम में घटित न हो जाये। तुम अपने को बदलने के लिए तभी राजी होओगे, जब तुम अनुभव करो कि या तो साधना या आत्महत्या; इसके अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं है। या तो आत्महत्या कर लो या अपने अस्तित्व को स्वपांतरित कर लो। जब केवल दो विकल्प बचते हैं, केवल तभी योग चुना जाता है,उसके पहले हरगिज नहीं। लेकिन योग निराशावादी नहीं है। अगर तुम आशावादी हो, तो योग तुम्हें निराशावादी लगेगा। ऐसा लगता है तुम्हारे कारण ही। पश्चिम में बुद्ध को निराशावाद की पराकाष्ठा मान लिया गया है क्योंकि बुद्ध ने कहा है कि जीवन दुख है, तीव्र व्यथा है। इसलिए पश्चिमी दार्शनिक बुद्ध के बारे में कहते रहे हैं कि बुद्ध निराशावादी हैं। एल्वर्ट श्वाइत्जर जैसा व्यक्ति भी ऐसा व्यक्ति जिसके कुछ जानने की आशा हम रख सकते हैं, वह भी इसी भ्रम में है। वह सोचता है कि सारा पूरब निराशावादी है। और यह बहुत बड़ी आलोचना है। वह अनुभव करता है कि सारा पूरब निराशावादी है। बुद्ध, पतंजलि, महावीर, लाओत्सु ये सभी उसके लिए निराशावादी हैं। वे निराशावादी लगते हैं। वे ऐसा लगते हैं क्योंकि वे कहते है कि तुम्हारा जीवन अर्थहीन है। ऐसा नहीं है कि वे जीवन को अर्थहीन कहते हैं। वे केवल उसी जीवन को कहते हैं जिसे कि तुम जानते हो। और जब तक यह जीवन पूर्णत: अर्थहीन नहीं हो जाता, तुम इसका अतिक्रमण नहीं कर सकते। तम इससे चिपके रहोगे। जब तक तुम इस जीवन के, अपने होने के इस ढंग के पार नहीं जाते, तुम नहीं जान पाओगे कि आनंद क्या है। लेकिन बुद्ध या पतंजलि आनंद के बारे में अधिक नहीं कहेंगे क्योंकि उनमें एक गहरी करुणा है तुम्हारे लिए। यदि वे आनंद के बारे में कहना शुरू करते तो तुम फिर आशा बनाने
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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