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________________ बहुत लप्तो, कभी-कभी बिना अनुशासन के, किसी संयोग द्वारा, किसी गुरु द्वारा, किसी गुरु के प्रसाद द्वारा या केवल किसी गुरु की मौजूदगी द्वारा समस्वरित हो जाते हैं। उनका देह-मन का पूरा रचनातंत्र तैयार नहीं होता है, लेकिन कोई हिस्सा क्रियाशील होना शुरू कर देता है। तब वे व्यवस्था के बाहर होते हैं। तब तुम अनुभव करोगे कि वे पागल है, क्योंकि वे कुछ बातें कहने लगेंगे जो असंगत दिखती हैं। वे भी अनुभव कर सकते है कि वे बातें असंगत हैं, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते। कुछ आरंभ हो गया है उनमें, वे रोक नहीं सकते इसे। वे एक विशिष्ट मस्ती का अनुभव करते हैं। इसीलिए वे कहलाते हैं 'मस्त' -खुश, प्रसन्न लोग। लेकिन वे बुद्ध जैसे नहीं होते है। वे बुद्ध-पुरुष नहीं होते। और यह कहा जाता है कि 'मस्तो' के लिए, इन आनंदित लोगों के लिए जो पागल हो गये हैं,बहुत कुशल गुरु की जरूरत होती है क्योंकि अब वे स्वयं के साथ कुछ नहीं कर सकते। वे तो बस अराजकता में हैं। सुखपूर्वक हैं इसमें, पर एक गड़बड़ी में। अब वे अपने से कुछ नहीं कर सकते। पुराने दिनों में, महान सूफी गुरु सारी पृथ्वी पर इधर से उधर घूमते। जब कभी वे सुनते कि कोई 'मस्त' कहीं है, कोई मतवाला-पागल है कहीं, तो वे वहां जाते और वे उस आदमी की मदद करते उसका तालमेल ठीक बैठाने में। इस शताब्दी में ही, मेहरबाबा ने यह कार्य किया है-इस प्रकार का एक बड़ा कार्य, एक दुर्लभ कार्य। निरंतर, कई वर्षों के लिए वे भारत भर की यात्रा करते रहे। और जिन स्थानों को देखने जाते, वे पागलखाने थे। क्योंकि पागलखानों में बहुत 'मस्त'रह रहे होते हैं। किन्तु तुम कोई फर्क नहीं कर सकते दोनों के बीच कि कौन पागल है और कौन 'मस्त' है। वे दोनों ही पागल है। पर कौन वास्तव में पागल है और कौन पागल है केवल एक दिव्य संयोग के कारण इस कारण कि कोई समस्वरता घट गयी है किसी संयोग द्वारा? इसमें तुम कोई भेद नहीं कर सकते। बहुत 'मस्त' वहां पागलखानों में हैं, इसलिए मेहरबाबा यात्रा करते और वे पागलखानों में जाकर रहते। वे मदद करते और सेवा देते उन 'मस्तों' को, उन पागलों को। और उनमें से बहुत अपने पागलपन से बाहर हो गये और अपनी यात्रा शुरू कर दी संबोधि की ओर। पश्चिम में बहुत, लोग पागलखानों में हैं, पागलों के आश्रमों में। बहुत हैं जिन्हें मन: चिकित्सीय सहायता की कोई जरूरत नहीं क्योंकि मनसविद उन्हें केवल सामान्य ही बना सकते हैं फिर से। जो संबोधि को उपलब्ध हो चुका हो, उसकी मदद की जरूरत है उन्हें, मनसविद की नहीं; क्योंकि वे बीमार नहीं हैं। या अगर वे रुग्ण हैं तो वे रुग्ण हैं एक दिव्य रोग से। और तुम्हारी स्वस्थता उस रुग्णता के सामने कुछ नहीं है। वह रुग्णता बेहतर है। तुम्हारी सारी 'स्वस्थता' गंवा देने लायक है। किंतु तब अनुशासन की जरूरत होती है।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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