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________________ पर अगर कोई भी उसे प्रेम नहीं दे रहा है, तब वह इसके लिए परिपूरक निर्मित करेगा। तुम्हारी सारी इच्छाएं चाहे सत्ता की या धन की या प्रतिष्ठा की, वे सब दर्शाती हैं कि तुम्हारे बचपन में कुछ चीज तुम्हें सिखा दी गयी थी, कोई चीज तुम्हारे जैविक-कम्प्यूटर में भर दी गयी है और तुम उस अंकन के पीछे चल रहे हो- भीतर झांके बिना, देखे बिना कि जो कुछ तुम मांग रहे हो, वह पहले से ही वहां है। पतंजलि की सारी चेष्टा है तुम्हारे जैविक-कम्प्यूटर को मौन बना देने की, जिससे कि वह दखल न देता रहे। यही है ध्यान। यह तुम्हारे जैविक कम्प्यूटर को, निश्चित क्षणों के लिए, मौन में रख रहा है, शब्दशुन्य अवस्था में, जिससे तुम भीतर देख सको और तुम्हारे गहनतम स्वभाव को सुन सको। एक झलक मात्र तुम्हें बदल देगी क्योंकि तब वह जैविक कम्प्यूटर तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है। तुम्हारा जैविक-कम्प्यूटर कहता ही जाता है, 'यह करो; वह करो।' वह लगातार तुम्हें चालाकी से प्रभावित किये जाता है, तुम्हें कहता रहता है कि तुम्हारे पास अधिक शक्ति होनी चाहिए, अन्यथा तुम कुछ नहीं हो। अगर तुम भीतर देख लो, तो कोई दूसरा बनने की कोई जरूरत ही नहीं है, कुछ होने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे तुम हो, स्वीकार कर ही लिये गये हो। सारा अस्तित्व तुम्हें स्वीकार करता है, तुमको लेकर प्रसन्न है। तुम एक खिलावट हो। एक व्यक्तिगत खिलावट-किसी दूसरे से भिन्न, बेजोड़। और ईश्वर तुम्हारा स्वागत करता है, अन्यथा तुम यहां हो न सकते थे। तुम यहां हो तो केवल इसलिए कि तुम स्वीकृत हो। तुम यहां हो सिर्फ इसीलिए कि ईश्वर तुम्हें प्रेम करता है; ब्रह्मांड तुम्हें प्रेम करता है; अस्तित्व को तुम्हारी जरूरत रहती है। तुम जरूरी हो। एक बार तुम अपने अन्तरतम स्वभाव को जान लेते हो-जिसे पतंजलि 'पुरुष' कहते हैं... 'पुरुष' का अर्थ होता है अंतर्वासी-तब किसी दूसरी चीज की जरूरत नहीं है। शरीर तो बस घर है। अंतवासित चेतना पुरुष है। एक बार तुम अंतरवासी चेतना को जान लेते हो, फिर किसी चीज की जरूरत नहीं रहती। तुम पर्याप्त हो। पर्याप्त से कहीं अधिक। जैसे तुम हो, पूर्ण हौ। तुम पूर्णतया स्वीकृत हो, सत्कार पाये हुए हो। अस्तित्व एक आशीष बन जाता है। इच्छाएं तिरोहित हो जाती हैं क्योंकि वे आत्म-अज्ञान का हिस्सा थीं। आत्म बोध होने से वे तिरोहित हो जाती हैं, वे विलीन हो जाती हैं। 'अभ्यास', सतत आंतरिक अभ्यास, जागरूक होने का अधिक से अधिक सचेतन प्रयास; अधिक और अधिक मालिक होना स्वयं का; आदतों द्वारा, यांत्रिक, यंत्र-मानव की तरह के रचनातंत्रों द्वारा कम और कम शासित होते जाना; और वैराग्य-निराकांक्षा-इन दोनों को उपलब्ध हुआ व्यक्ति योगी बन जाता है। इन दोनों को उपलब्ध किये हुए व्यक्ति ने लक्ष्य प्राप्त कर लिया होता
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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