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________________ वह बोला, 'अब मुझे रोकिए मत। मुझे मारने दें। अब तकिया मेरे लिए कोई तकिया नहीं रहा। तकिया वास्तव में मेरा पिता बन गया है।' तो उस दिन उसने अपने पिता को मार डाला। फिर उसने रोना शुरू कर दिया; उसकी आंखों में आंसू आ गये। वह शांत पड़ गया, हल्का हो आया और फिर उसने मुझसे कहा, 'अब मै अपने पिता के लिए ज्यादा प्रेम अनुभव कर रहा हं ज्यादा करुणा। अब मुझे वापस घर जाने दीजिए।' अब वह वापस अमरीक या है। अपने पिता के साथ उसका संबंध पूरी तरह बदल चुका है। क्या घटित हुआ है?बस यही कि एक यांत्रिक-आवेग टूट गया था। जब कुछ पुराने ढांचे तुम्हारे मन को पकड़े हुए हों तब अगर तुम स्थिर बने रह सकते हो तो यह अच्छा है। यदि तुम नहीं रह सकते, तब इसे नाटकीय ढंग से घटित होने दो, लेकिन अकेले; किसी के साथ नहीं। क्योंकि जब कभी तुम अपने ढांचे का अभिनय करते हो, जब कभी तुम अपने ढांचे को किसी के साथ स्वयं व्यक्त होने देते हो, तो यह नयी प्रतिक्रियाएं निर्मित करता है और यह एक दुष्चक्र बन जाता है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है ढांचे के प्रति चौकन्ने होना। चाहे तुम मौन बने खड़े हुए हो या अपने क्रोध और घृणा को अभिनीत कर रहे हो। यह कैसा खुलता जाता है इसे देखते हुए सजग रहो। और यदि तुम रचना-तंत्र को देख सकते हो, तो तुम उसे मिटा सकते हो। योग के सारे चरण बस उसे अनकिया करने के लिए हैं जिसे तुम करते रहे हो। वे नकारात्मक है; कुछ नया निर्मित नहीं करना है। गलत को नष्ट मात्र करना है, और तब ठीक वहां पहले से ही है। तो विधायक कुछ नहीं किया जाना है, केवल कछ नकारात्मक ही करना है। विधायक उसके तले ही छिपा है। वह किसी लहराती धारा की भांति है जो चट्टान के नीचे छिपी है। तुम धारा का निर्माण नहीं कर रहे। वह वहां निनाद कर रही है पहले से ही। वह मुक्त हो प्रवाहमान हो जाना चाहती है। एक चट्टान वहां है। इस चट्टान को हटा देना है। एक बार चट्टान हटा दी जाती है, धारा बहना शुरू कर देती है। आनंद, सुख, हर्ष या जो कुछ भी तुम नाम रखो उसका, वह तुम्हारे भीतर बह ही रहा है। केवल कुछ चट्टानें वहां है। वे चट्टानें समाज के आरोपित संस्कार है। उन्हें असंस्कारित कर दो। अगर तुम अनुभव करते हो कि आसक्ति चट्टान है, तो अनासक्ति के लिए प्रयत्न करो। अगर तुम अनुभव करते हो कि क्रोध है चट्टान, तो अ-क्रोध के लिए प्रयास करो। अगर तुम्हें लगता है लोभ चट्टान है, तब अ-लोभ के लिए प्रयास करो। बस विपरीत करो। लोभ का दमन मत करो, केवल विपरीत करो। कोई चीज करो जो गैर-लोभ की हो। क्रोध का दमन मात्र मत करो, कुछ करो जो अक्रोध की बात हो।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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