SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनुष्य के अस्तित्व का यह ढंग समझना होता है, इससे पहले कि कोई स्वयं में प्रवेश करे और यह समझ केवल बौदधिक नहीं बनी रहनी चाहिए। यह और गहरी उतरनी चाहिए। इसे अचेतन परतो को बेधना चाहिए, इसे शरीर तक को प्रभावित करना चाहिए। इसलिए है अभ्यास का महत्व सतत आंतरिक अभ्यास। ये दो शब्द बहुत सार्थक हैअभ्यास और वैराग्य । अभ्यास का मतलब है अविरत आंतरिक अभ्यास और वैराग्य का मतलब है अनासक्ति इच्छा - विहीनता आगे आने वाले पतंजलि के सूत्र इन्हीं सर्वाधिक अर्थपूर्ण धारणाओं से संबंध रखते हैं। लेकिन इससे पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, यह विचार कि मनुष्य के व्यक्तित्व का ढांचा समग्र स्वप्न से बौदधिक नहीं है, गहराई से समझ लेना होगा। , अगर यह केवल बुद्धिगत होता, तो फिर अभ्यास को सतत दोहराये जाने वाले प्रयास की कोई जरूरत ही न होती। यदि कोई चीज बुद्धि-संगत होती है, तुम तुरंत मन द्वारा उसे समझ सकते हो। लेकिन केवल बुद्धिगत समझ काम नहीं देगी। उदाहरण के लिए तुम आसानी से समझ सकते हो कि क्रोध बुरा है, विषाक्त है। लेकिन यह समझ काफी नहीं है इसके लिए कि क्रोध तुम्हें छोड़ जाये, विलीन हो जाये तुम्हारी समझ के बावजूद क्रोध जारी रहेगा, क्योंकि क्रोध तुम्हारे अचेतन की बहुत सी तहों में बना रहता है और केवल तुम्हारे मन में ही नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर में भी। शरीर मात्र शाब्दिक प्रयास द्वारा नहीं समझ सकता। केवल तुम्हारा सिर समझ सकता है, लेकिन शरीर अप्रभावित बना रहता है। और जब तक समझ एकदम शरीर की जड़ तक न पहुंचे, तुम रूपांतरित नहीं हो सकते। तुम वैसे ही रहोगे। तुम्हारे विचार बदलते रह सकते हैं, लेकिन तुम्हारा व्यक्तित्व वैसा ही बना रहेगा। और तब एक नया द्वंद्व उठ खड़ा होगा। तुम हमेशा से कहीं अधिक अशांति में जा पड़ोगे । क्योंकि अब तुम देख सकते हो कि क्या गलत है और फिर भी तुम्हारा उसे करने का आग्रह बना रहता है। तुम उसे किये जाते हो, और एक आत्म-अपराध और निंदा निर्मित होती है। तुम स्वयं को घृणा करने लगते हो, तुम स्वयं को पापी समझने लगते हो। और जितना ज्यादा तुम समझते हो, उतनी ज्यादा निंदा बढ़ती जाती है। क्योंकि तुम देखते हो कितना कठिन है! लगभग असंभव है स्वयं को परिवर्तित करना । योग बौद्धिक समझ में विश्वास नहीं करता। यह शारीरिक समझ में विश्वास रखता है, एक समग्र समझ में, जिसमें तुम्हारी अखंडता अंतर्निहित होती है। केवल तुम्हारा सिर ही नहीं बदलता बल्कि तुम्हारी अंतस सत्ता के गहन स्रोत भी बदल जाते हैं। वे कैसे बदल जाते हैं? किसी विशेष अभ्यास का निरंतर दोहराव अनैच्छिक होता जाता है। यदि तुम कोई विशेष अभ्यास सतत स्वप्न से करते हो, बस उसे लगातार दोहरा रहे होते हो, धीरेधीरे वह चेतन मन से गिर जाता है, अचेतन तक पहुंच जाता है। और उसका हिस्सा बन जाता है।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy