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________________ कल आपने एक पश्चिमी विचारक का लिए किया थर जिसने हर चीज पर संदेह करना शुरू कर दिया था जिस पर कि संदेह किया जा सकता शु लेकिन जो स्वयं पर संदेह नहीं कर सका था। आपने कहा कि यह बड़ी उपलब्धि है-स्वयं को दिव्यता के प्रति खोल देना। कैसे? उच्चतर चेतना की ओर खुलने का मतलब है, तुम्हारे भीतर कुछ होना चाहिए जो असंदिग्ध है। यही है श्रद्धा का अर्थ। तुम्हारे पास कम से कम एक विषय है जिस पर तुम श्रद्धा रखते हो, जिस पर तुम अगर चाहो भी तो संदेह नहीं कर सकते। इसीलिए मैंने कहा कि देकार्त उस एक बिंदु तक आ पहुंचा था अपनी तर्कपूर्ण खोज द्वारा, जहां उसने जाना कि हम स्वयं पर संदेह नहीं कर सकते। मैं इस पर संदेह नहीं कर सकता कि मैं हूं क्योंकि यह कहने के लिए भी कि 'मुझे संदेह है', मुझे होना होता है। यह दावा ही कि 'मैं संदेह करता हूं, सिद्ध करता है कि मैं हूं। तुमने सुना होगा देकार्त का प्रसिद्ध कथन- 'काजिटो एर्गो सम'|'मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं। संदेह करना सोचना है; मैं संदेह करता हूं इसलिए मैं हूं। लेकिन यह केवल प्रारंभ है। और देकार्त कभी भी इस द्वार के पार नहीं गया। वह फिर वापस मुड़ आया। तुम द्वार से ही वापस आ सकते हो। वह खुश था कि उसने केंद्र को ढूंढ लिया था, एक असंदिग्ध केंद्र को। और वहां से उसने अपने दर्शन पर कार्य करना शुरू किया। वह सब जिसका वह पहले खंडन कर चुका था, उसे भीतर खींचने लगा पिछले दरवाजे से। उसने तर्क किये- 'क्योंकि मै हं तो कोई रचनाकार भी होगा, जिसने मेरी रचना की है।' और फिर वह स्वर्ग और नरक तक चला गया। फिर भगवान और पाप, और फिर सारा ईसाई धर्मशास्त्र पिछले द्वार से आ पहुंचा। उसने इस विधि का प्रयोग किया तात्विक अन्वेषण के लिए। वह योगी नहीं था, वह वास्तव में अपने अस्तित्व की खोज में नहीं था, वह सिद्धांत की खोज में था। लेकिन तुम इस विधि का सकते हो। प्रारंभिक द्वार का मतलब हुआ : तुम्हें इसका अतिक्रमण करना होता है, तुम्हें इसके पार जाना होता है, तुम्हें इससे गुजर जाना होता है। तुम्हें इससे चिपके नहीं रहना होता। यदि तुम चिपकते हो, तब कोई भी द्वार बंद हो जायेगा। यह जान लेना अच्छा है कि कम से कम मैं स्वयं पर संदेह नहीं कर सकता। फिर अगला सही कदम यह होगा- 'यदि मैं स्वयं पर संदेह नहीं कर सकता, यदि मैं अनुभव करता हूं कि मैं हूं तब मुझे जानना होगा कि मैं हूं कौन।' तब यह सही अन्वेषण बन जाता है। तब तुम धर्म में आगे बढ़ते हो, क्योंकि जब तुम पूछते हो कि मैं कौन हूं? तब तुम एक दुनियादी प्रश्न पूछते हो-दार्शनिक नहीं लिए अस्तित्वगत। कोई दूसरा व्यक्ति उत्तर नहीं दे सकता कि कौन हो तुम। कोई दूसरा तुम्हें
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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