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________________ बाहरी तौर पर यह बेतुका लगता है। कैसे इतने छोटे-से मन से कोई संपर्क बन सकता है शाश्वत के साथ, असीम के साथ, अनंत के साथ? एक दूसरी बात भी समझ लेनी है। यह मन वस्तुत: छोटा नहीं है, क्योंकि यह भी असीम का एक हिस्सा है। यह छोटा लगता है तुम्हारे कारण, यह सीमित लगता है तो तुम्हारे कारण। तुमने सीमाएं बना ली हैं। ये सीमाएं मिथ्या है। तुम्हारा छोटा मन भी असीम से संबंध रखता है। यह उसका हिस्सा है। बहुत-सी बातें समझ लेनी हैं। असीमित के संबंध में जो बहुत-सी विरोधाभासी बातें हैं उनमें से एक है-कि अंश हमेशा संपूर्ण के बराबर होता है क्योंकि तुम असीम को विभक्त नहीं कर सकते। सारे विभाजन मिथ्या हैं हालांकि वर्गीकरण करना उपयोगी हो सकता है। मैं कह सकता हूं कि मेरे घर के ऊपर का आकाश, मेरी छत के ऊपर का आकाश मेरा आकाश है; जैसे कि भारत के लोग कहते हैं, भारतीय महाद्वीप के ऊपर का आकाश भारतीय आकाश है। क्या अर्थ करते हो तुम आकाश को विभाजित नहीं कर सकते। वह चीनी या भारतीय नहीं हो सकता। वह एक अविभक्त विस्तार है। वह कहीं आरंभ नहीं होता,वह कहीं खत्म नहीं होता। यही बात मन के साथ घटित हुई है। तुम इसे कहते हो, तुम्हारा मन, लेकिन यह 'तुम्हारा' श्रातिजनक है। मन असीम का अंश है। जैसे कि पदार्थ असीम का हिस्सा है, मन असीम का हिस्सा है। तुम्हारी आका भी असीम का ही अंश है। जब यह 'मेरा' खो जाता है, तुम ही असीम हो जाते हो। इसलिए यदि तुम सीमित दिखते हो, तो यह केवल एक भ्रांति है। सीमितता वास्तविकता नहीं है, सीमितता सिर्फ एक धारणा है, एक श्रम। और तुम्हारी धारणा के कारण तुम सीमा में बंद रहते हो। जो कुछ तुम विचारते हो, हो जाते हो। बुद्ध ने कहा है- और वे लगातार यही दोहराते रहे चालीस वर्ष तक–कि जो कुछ तुम सोचो, वह तुम हो जाते हो। सोचना-विचारना ल्हें बनाता है। जो कुछ भी तुम हो-यदि तुम सीमित हो, यह एक दृष्टिकोण है जिसे तुमने अपना लिया है। दृष्टिकोण को गिरा दो और तुम असीम हो जाते हो। योग की सारी प्रक्रिया एक ही है-मन को कैसे गिराये। मनोदशा के ढांचे को कैसे गिराये; दर्पण को कैसे नष्ट करें;प्रतिबिंब से यथार्थ की ओर कैसे बड़े; सीमाओं के पार कैसे जायें? सीमाएं स्व-रचित होती हैं, वे वस्तुत: वहां होती नहीं। वे मात्र विचार हैं। इसलिए जब कभी मन में कोई विचार नहीं होता है, तुम होते ही नहीं। विचारशून्य मन अहंकारशून्य होता है। एक विचारशून्य मन सीमारहित होता है। एक विचारशून्य मन असीम है ही। यदि एक क्षण के लिए भी कोई विचार न रहे, तुम असीमित हो जाते हो क्योंकि विचार के बिना सीमाएं रह नहीं सकतीं। विचार के बिना तुम मिट जाते हो और भगवत्ता उतरती है। विचार में बने रहना मानवीय हैं-विचार के नीचे रहना पशु होना है; विचार के पार चले जाना दिव्य हो जाना है। लेकिन तर्कपूर्ण मन तो प्रश्न
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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