SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्र की सेवा के लिए न्योछावर है । उनके हृदय में बेचारे पाप को पनाह लेने की जगह ही कहां है ? लेकिन दुनिया ऐसे लोगों को आदमी ही नहीं मानती। वह एक ऐसी जमात है जिसके हाथ मे न समाज है, न समाज का कारोबार । पाप को ऐसे लोगो से कोई भय नही । वे दुनिया में रह आये तो ठीक, न रह आये तो ठीक। भले लोगो की इस निष्क्रियता पर पाप मुसकरा रहा है। वे बुरा बोलते नही, बुरा देखते नही, और बुरा सुनते भी नही । समाज के ड्राइंग रूम के ये सुन्दर खिलौने है-सजावट की वस्तु । पाप उन्हें झुक कर नमस्कार करता रहता है । गुमराह इस तरह मनुष्य बहुत मुसीबत में है, उसका पुण्य गलत रेलगाडी मे सफर कर रहा है और पाप उसके हृदय में ही बस गया है। उसे अच्छा लगता है कि हिकमत के कारण उसके किए पाप उस तक ही रह जाते है और कोई उन्हे जान नही पाता। इस कला में जो जितना माहिर है, वह उतना ही प्रतिष्ठावान । अभी जगलो पहाडो मे बसने वाला आदिवासी इस कला को नहीं सीख पाया है । भावावेश मे बेचारा कुछ कर बैठता है तो खुद ही थाने पर पहुँच कर साफ-साफ कह देता है। मनुष्य की आधुनिक सभ्यता अभी उस तक नही पहुँची है, होले होले पहुँच रही है । वह भी सीख जाएगा । धीरे-धीरे यह जमी भी आसमा हो जाएगी। मनुष्य ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, धर्म-नीति, राज्य, उद्योग, उपकरण और साधनो की दुनिया में आश्चर्यजनक प्रगति की है फैलाव किया है और उपलब्धिया हामिल की हैं। पर इस भूल-भुलैया मे उसका विवेक खो गया है। विज्ञान की सहायता से वह न जाने कैसी-कैसी जानकारी प्राप्त करने मे सफल हुआ है--नभ की, थल की और जल की । उसकी देखने और जान लेने की ताकत लाखो गुना बढी है-एक सेकण्ड के लाखवे हिस्से की भी हलनचलन उसकी पकड मे है । पर समाज जीवन मे बिंधे हुए मनुष्य के पापा ३६ महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy