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________________ हुआ है ? मनुष्य को लाचार निरीह पशु के समान बना देने वाले हमारे आचरण पाप की परिभाषा मे आयेंगे कि हमारे एकादशी-अष्टमी-चतुर्दशी के व्रत-उपवास से पाप का ताल्लुक है ? उत्तर देने की जरूरत है ? मनुष्य ने सतही पापो से बचने में ही अपनी शक्ति लगा रखी है। जो पाप जीवनव्यवहार मे गहरे धंस गये हैं और जिनके कारण समूची मानवताही परास्त हो रही है, उनके प्रति हमने आखे भीच ली हैं। ___ पाप की प्रसन्नता का एक और कारण है। पाप फूला नहीं समा रहा है, क्योकि मनुष्य ने उसके ही दूतो को पुण्य की प्रतिष्ठा प्रदान कर दी हैआपके पास सासारिक वस्तुओ का अम्बार है तो आप सुखी है और आप पुण्य के स्वामी है। कर्म जो हो, जैसे रहे हो-प्रतिष्ठा यदि धन-सम्पदा, सत्ता-अधिकार, ऐश्वर्य और वैभव को प्राप्त है तो पाप पुण्य बनकर अपनी गर्दन ऊँची किये घूमता है। उसे छिपने की जरूरत ही नही है। सिर्फ अपना सबध धन से, सत्ता से और अधिकार से जोड भर लेना है। पाप का रग ही बदल जाता है, वह पुण्य दिखायी देता है। यह जो गोगा-पाशा जैसा जादू है उससे पाप बेहद प्रसन्न है। उसने सोचा ही नही था कि मनुष्य अपना सर्वोत्कृष्ट आवास 'हृदय' ही उसे सौंप देगा । महावीर, बुद्ध, ईसा, गाधी ने चाहा था कि मनुष्य अपने हृदय में पूरे विश्व के प्राणि-जगत् को स्थान दे, भूत-दया पाले, सबसे प्रेम करे, अपने करुणा रस से सबका सिचन करे और यो अपनी आत्मा को ऊँचा उठाये । यही मनुष्य के जीवन की तर्ज है। पर मनुष्य बडा चतुर निकला। उसने भूत-दया के नाम पर कुछ ऊपर-ऊपर की बाते अगीकार कर ली हैं। राह चलते-चलते वह बडे दयाभाव से भिखारी के कटोरे में एक छोटा सिक्का डाल देता है और कुत्ते को दो रोटी। कुछ हैं जो इससे आगे बढ़कर कुछ अधिक दान-दक्षिणा दे देते हैं। चूसते हैं तो थोडा देते भी हैं । जैसे पीतल की काया पर सोने का मुलम्मा चढा दिया हो। मैं उन मुट्ठी भर साधको की बात नहीं कर रहा जिनका हृदय मनुष्य की, प्राणि जीवन में? ३५
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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