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________________ पर हम महावीर के निर्वाण से इतने आत्म-विभोर हैं कि उनकी जय-जयकार कर रहे हैं, उनकी बात नहीं सुन रहे हैं। वे मनुष्य को मनुष्य बने रहने की सीख देते रहे। उनकी अहिंसा पूजा-पाठ और मन्दिर की चीज़ नहीं है। मनुष्य और मनुष्य, प्रकृति और मनुष्य, प्राणि-जगत् और मनुष्य के बीच की वस्तु है-जीने की एक प्रक्रिया है। वह हमारे जीवन के एकएक पल मे, हमारी हर सास मे, हमारे हर व्यवहार मे उतरनी चाहिए । पर हम जो महावीर के हैं, जीवन जी ही नही रहे, जीवन बटोर रहे हैं या फेक रहे हैं और मन्दिरो में जा-जाकर उन दरवाजो पर दस्तक दे रहे हैं जो बन्द हैं। महावीर को हमने घर से बाहर कर दिया, बाजार से निकाल दिया, मनुष्य के सामान्य जीवन से भगा दिया, व्यापार-व्यवसाय मे रहने नही दिया हे भगवन् ! आप यहा कहा? यहा तो हम रहते हैं, चलिये आप मदिर मे बिराजिए। हम वही आपको पूजेगे, भजेंगे, आरती उतारेगे, कलश करेगे, आपकी वाणी पढेगे। हमसे अच्छा श्रावक कोन? हम व्रत रखेगे। बाहर तो ससार है, वहा वह सब चलेगा जो तुम्हें पसन्द नही था, जिसे तुम मुक्ति का रोडा समझते थे। दूसरी ओर, हमारे त्यागी-तपस्वी साधुमना भी बाहर का जीवन फेककर अपने-आप मे बन्द हो गये हैं । ससार अमार है, उसे बहने दो जैसा बहता है। आत्मधर्म यहा बद होकर खोजेंगे। आपकी हिंसा से, द्वेष से, मोह-माया से, दुराचरण से, धोखा-फरेबी से हमे क्या लेना-देना-हम ठहरे साधु । इन सब मे पडे तो हमारी आत्म-साधना मे बाधा पडती है । और इस तरह हम सिमिट कर अपने-अपने घरो मे कंद है। दो समानान्तर रेखाओ पर टूटकर चल रहे हैं। मनुष्य का ससार केवल उसके शरीर का विस्तार नहीं है, वह आत्मा से उतना ही जुड़ा है, जितना मनुष्य स्वय आत्मा से जुड़ा है । मुक्ति के साधक मनुष्य को एक-न-एक दिन अपने पूजा-घर से, अपने गेरुए से, अपनी पीछी-कमडल से बाहर महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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