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________________ और समुद्रो मे विषैला गन्दा पानी फैल गया है और जलचर समाप्त हैं, घने जंगल कट गये – पशुओ को सिर छिपाने की जगह नहीं है, पक्षियो के लिए आकाश कठिन होता जा रहा है और जो अग्नि विश्व की पोषक ऊर्जा थी वह सहार में लग गयी है। सृष्टि के पच भूत - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश डावाडोल हैं । विनाश के कगार पर खड़े हैं । दिशा - भ्रम धरती बहुत चिन्तित है । उसे गर्व था मनुष्य पर । उसके सम्पूर्ण प्राणि-जगत मे सबसे अधिक शात, धैर्यवान, क्षमावीर, मेधावी, करुणामूर्ति, सत्य का उपासक और ज्ञानवान कोई है तो मनुष्य है । आत्मदर्शी है और आत्मजयी है । उसने पशुबल के निचले स्तर से ऊपर उठकर आत्मबल को पहचाना है, और इसीलिए उसने अहिंसा की राह पकड़ी है । हिंसा तोडती है और क्रूर बनाती है । मनुष्य के पास सवेदना है, इसलिए वह पूरी सृष्टि के साथ एकता अनुभव करता है। जुड ही सकता है । टूटकर अलग हो जाना उसका धर्म नहीं है । उसे मालूम है कि वह कुछ जी सकता है तो अहिसा ही जी सकता है, क्रूरता कब तक करेगा — लौट - कर उसे करुणा ही ओढनी है, घृणा उसकी प्राणवायु (ऑक्सीजन) नहीं है - वह प्रेम ही कर सकता है । इस आत्मबोध को पाने मे उससे कोई चूक नही हुई । उसने अपने-आपका सही आकलन किया है । सौ-सौ सदियों से वह बार-बार अहिंसा, करुणा, दया, प्रेम की ही दुहाई देता रहा है । उसके सारे देवता, सारे भगवान करुणा-सागर है, आत्मजयी हैं, मगलमूर्ति हैं, पालनहार है । फिर क्या हुआ कि इस विशाल सृष्टि के अनन्त प्राणियो के बीच सबसे अधिक घृणा, द्वेष, क्रूरता, विनाश, सहार और हत्या मनुष्य के पल्ले बध गयी ? अभी-अभी विश्व के 200 वैज्ञानिको ने सम्पूर्ण मानव-जाति से जो मार्मिक अपील की है उसका निचोड यही है कि, मनुष्य ने यदि अपने १२२ महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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