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________________ मक्स आपके चित्त पर मेरे बारे मे पड रहा है । यो बाहर-बाहर मनुष्य बहुत सभ्य बना है। शान्त हुआ है। उसका चेहरा कोमल और खिलाखिला लगता है । देखते ही मुसकराता है, नम्रता देता है और नम्रता पाता है। हम सब मित्रवत् चल-फिर रहे हैं, मिल-जुल रहे हैं, शिष्टाचार निभा रहे हैं, लेकिन हिंसा के नही दिखायी देने वाले उपकरण भीतर-ही-भीतर हरे हो रहे हैं । अहकार, द्वेष, घृणा, तिरस्कार, आग्रह बल्कि दुराग्रह, धौंस ऐसे तेज घातक उपकरण है जो मनुष्य के रक्त मे धुल गये है और अहिंसा का रास्ता रोके हुए हैं । 'स्वार्थ' के टकराते ही ये सब सक्रिय हो जाते हैं और मनुष्य का 'स्वधर्म' घुटने टेक देता है। करुणा, दया, मित्रता, नम्रता, क्षमा, त्याग, सयम, प्रेम आदि मनुष्य के स्वधर्म है। और ये ही अहिंसा के उपकरण है जो उसे आत्मबोध देते हैं तथा अहिसा के मार्ग पर आगे बढाते है। स्वधर्म सक्रिय क्यो नही ? पर क्या कारण है कि अहिंमा-धर्मी का स्वधर्म सक्रिय नही होता और अहिंसा धर्म की जय-जयकार करते हुए भी दिन में सौ-सौ बार भीतर से उसकी हिंसा भडक उटती है ? क्या कारण है कि साधना वह अहिंसा की करता है और रियाज हिंसा की होने लगती है ? इस प्रश्न की तह मे हम उतरे तो पायगे कि अहिंसा के 'मिकेनिज्म-यन्त्ररचना' का एक मौलिक पुर्जा हमारी पकड से बाहर है। महावीर ने अहिंसा के साथ 'भनेकान्त' को जोडा था। उनका अहिंसा-रथ अनेकान्त के पहियो पर टिका है । पर अनेकान्त के ये पहिये तो जाम है, चल ही नही रहे-हमने उन्हें छुआ ही नही । यही मानते रहे कि अनेकान्त-स्याद्वाद कोई न्यायशास्त्र या तर्कशास्त्र का ऐसा व्याकरण है जो पण्डितो के प्रवचन की चीज है । जीवनव्यवहार मे हम एकान्ती बन गये है। जितना हमने देखा-समझ। वहीं सत्य है और उसी के आग्रह पर टिके हुए है। आपने जो देखा-समझा वह भी सत्य का एक पहलू हो सकता है, यह हमारे गले उतरता ही नही । महावीर जीवन में ? १११
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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