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________________ पच महाव्रत 'माहंसा' को ही लीजिए। समझ हमारी इतन गहरे गयी है कि मासाहारी भी समझता है कि मनुष्य का धर्म अहिंसा है। मनुष्य हिंसक बना रहा तो टूट ही जाएगा। वह अपनी हिंसा का दायरा घटा रहा है । अहिंसा-धर्मी यहा तक बारीकी मे उतरे कि उनके आहार में से जमीकद, पत्ता-भाजी, अकुरित धान आदि आरगेनिक (जैविक) वस्तुएँ निकल गयी। यह खान-पान की अहिंसा बहुत लम्बे मीलो तक चलती चली गयी हैं। एक-एक फल, तरकारी, खाद्य वस्तुओ के आसपास अनन्त मर्यादायें बन गयी है। और सावधानीपूर्वक इन मर्यादाओ का वह पूरे जीवन पालन करता है और श्रद्धापूर्वक मानता है कि वह अहिंसा-धर्म को थामे हुए है। इस तरह शरीर तो अहिंसक बना, लेकिन मन? मिजाज मे, व्यवहार मे, स्वभाव मे जो हिंसा-तत्त्व दाखिल है उसका क्या होगा? हिसा की फौज तो उसके अन्तर में डेरा डाले हुए है-घृणा, द्वेष, वैर, क्रोध उसके भीतर गहरे धसते जा रहे हैं। ऊपर से वह इतना अहिंसक है कि पत्ता-भाजी खाने मे हिंसा मानता है, पर हिंसा के घुसपैठिए उसे भीतर से घेरे हुए है। यह एक कठिन और नाजुक क्षेत्र है। शरीर को हिंसा से बचाने वाली नकारात्मक (नेगेटिव्ह) प्रक्रिया यहा नही चलेगी। अहिंसा कुछ करने के लिए कहती है। वह कहती है कि 'प्रेम' करो। विश्व के सम्पूर्ण प्राणि-जगत्-जिस-जिसमे प्राण है-उस सम्पूर्ण ससार को अपना प्यार दो, अपनी मंत्री दो। कैसे बनेगी यह बात ? बाइबिल कहती है-लव दाई नेबर-~-अपने पडौसी को प्यार करो। जो जहा है वही उसका ससार है। हिंसा व क्रूरता से भरा पडा है। इससे जूझने के लिए करुणा जगानी होगी-पहले अपने मन में, फिर अपने आसपास के समाज मे । जैसे-जैसे करुणा बढेगी, प्रेम बढेगा। घृणा, द्वेष, वैर और क्रोध निश्चित रूप से गलेंगे। और यही हम नहीं कर रहेजितना कर रहे वह अति सूक्ष्म है-नेग्लिजिबिल है। सतत बच रहे हैं खान-पान की हिंसा से, लेकिन मिजाज, स्वभाव व व्यवहार की हिसा से ८८ महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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