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________________ अ ३ म ४३ ३० भिक्षुओ, यह लौकिक सजा है, लौकिक निरुक्तियाँ है, लौकिक व्यवहार है, लौकिक प्रज्ञप्तियाँ है—इनका तथागत व्यवहार करते है, लेकिन इनमें फँसते नही । भिक्षुओ, 'जीव (आत्मा) और शरीर भिन्न भिन्न है' ऐसा मत रहने से श्रेष्ठ - जीवन व्यतीत नही किया जा सकता। और 'जीव ( आत्मा ) तथा शरीर दोनो एक है' ऐसा मत रहने से भी श्रेष्ठ- जीवन व्यतीत नही किया, जा सकता । इस लिए भिक्षुओ, इन दोनो सिरे की बातो को छोड कर तथागत बीच के धर्म का उपदेश देते है - अविद्या के होने से सस्कार, सस्कार के होने से विज्ञान, विज्ञान के होने से नामरूप, नामरूप के होने से छ आयतन, छ आयतनो के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से वेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के होने से भव, भव के होने से जन्म, जन्म के होने से बुढापा, मरना, शोक, रोना-पीटना, दुक्ख, मानसिक चिन्ता तथा परेशानी होती है । इस प्रकार इस सारे के सारे दुख-स्कन्ध की उत्पत्ति होती है । भिक्षुओ, इसे प्रतीत्य-समुत्पाद कहते है । अविद्या के ही सम्पूर्ण विराग से, निरोध से सस्कारो का निरोध होता है । सस्कारो के निरोध से विज्ञान-निरोध, विज्ञान के निरोध से नामरूप निरोध, नामरूप के निरोध से छ आयतनो का निरोध, छ आयतनो के निरोध से स्पर्श का निरोध, स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव-निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से बुढापे, शोक, रोने-पीटने, दुक्ख, मानसिक चिन्ता तथा परेशानी का निरोध होता है । इस प्रकार इस सारे के सारे दुखस्कन्ध का निरोध होता है । भिक्षुओ, जिन प्राणियो पर अविद्या का परदा पडा हुआ है, जो तृष्णा
SR No.034090
Book TitleBuddh Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahasthavir Janatilok
PublisherDevpriya V A
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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