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________________ C है ——— सचिच्दानन्द स्वरूप ब्रह्म है- - उस वह्म को साक्षात् करना ही एकमात्र परमार्थ है । छ इन्द्रियो से जिस ससार का प्रतिक्षण अनुभव हो रहा है, उसे मिथ्या कहे तो कैसे ? और इस 'मिथ्या' के पीछे किसी दूसरे सत्य को स्वीकार करे तो कैसे ? किस आधार पर ? 'श्रुति प्रतिपादित' होने के अतिरिक्त क्या और भी कोई प्रमाण है ? और श्रुति की प्रामाणि - कता मे क्या प्रमाण है ? ससार के भोगो को ही परम परमार्थ मानने वालो को यदि हम जडवादी = भोगवादी कहे, तो सासारिक वस्तुओ को सर्वथा मिथ्या मानने वालो को हम आत्मवादी वा ब्रह्म-वादी कह सकते है । बुद्ध का अपना वाद क्या है ? त्रिपिटक मे ससार का वर्णन दोनो दृष्टियो से है । साधारण आदमी की दृष्टि से भी और अर्हत् जीवन्मुक्त की दृष्टि से भी । व्यावहारिक दृष्टि से भी ओर यथार्थ दृष्टि से भी । साधारण आदमी की दृष्टि से ससार मे फूल भी है कॉटे भी है, दुख भी है सुख भी है, लेकिन अर्हत की दृष्टि से ससार मे कॉंटे ही कॉटे हैं, दुख ही दुख है । खुजली के रोगी को खाज के खुजलाने मे जो मजा आता है वह "न लड्डू खाने मे, न पेडे खाने मे ।" खाज का खुजलाना उसके लिए मजा है, सुख है और खाज का न खुजलाना — यूँ ही खाज होते देते रहना कॉटे है, दुख है । थोडी देर के लिए वह यह भूल जाता है कि स्वस्थ मनुष्य की कोई ऐसी भी अवस्था है जिसमे न खाज होती है, न खुजलाना । खाज से पीडित आदमी के लिए खाज होना अवाञ्छनीय है, खुजलाना वाञ्छनीय। स्वस्थ आदमी दोनो से परहेज करता है । न उसे खाज होना प्रिय है, न खुजलाना । साधारण आदमी के लिए ससार के सुख वाञ्छनीय है, दुख अवाञ्छनीय, अर्हत् दोनो को एक दृष्टि से देखता है । इन्द्रियो और मन की जिन चचलताओ को हम 'मजा लेना' कहते है, शान्त-चित्त अर्हत् के लिए वह सभी चञ्चलताये दुख है ।
SR No.034090
Book TitleBuddh Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahasthavir Janatilok
PublisherDevpriya V A
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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