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________________ [ ५८ ] चली ज्ञेय हेय उपादेय रूपे, लहे चित्तमां जेम ध्याने प्रदीपे ||४|| || ढाल उलालानी देशो || भव्य ननो गुण ज्ञानने, स्त्रपर प्रकाशक भावे जी । पर्याय धर्म अनंतता, भेदाभेद स्वभावे जी ॥ १ ॥ ॥ उलालो || जे मुख्य परिणति सकल ज्ञायक, वोधभाव विलासता । मति आदि पञ्च प्रकार निर्मल, सिद्धि साधन लंच्छता ॥ १ स्याद्वाद संगी तच्चरंगी, प्रथम भेदाभेदता । सविकल्पने अविकल्प वस्तु, सकल संशय छेदता ॥ २ ॥ || पूजा ढाल श्रीपालना रासनी देशी || भक्ष अभक्ष न जे विण लहिये, पेय अपेय विचार | कृत्य अकृत्य न जें विण लहिये, ज्ञान ते सकल आधार रे । ॥ भविका० ३१ ॥ प्रथम ज्ञान ने पछी अहिंसा, श्री सिद्धान्ते भाख्युं । ज्ञान ने वंदो ज्ञान सनिन्दो, ज्ञानीए शिव सुख चाख्यु रे । || भविका० ३२ ॥
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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