SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७० वृहत् पूजा-संग्रह ॥ काव्यस् ॥ लोकेपणाति तृष्णोदय वारणाय० । मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने "अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा । ॥ द्वितीय चन्दन पूजा ।। ॥दोहा॥ जीवन चन्दन रूप हो, गुण सुगन्ध भर पूर । अपकारी उपकार कर, प्रभु पद पूज सनूर ॥१॥ चन्दन पूजा भावना, हरदम राखो आप। प्रभु पद तिलक विधालते, मिले मोक्षपद छाप ॥२॥ (तर्ज-कैसे कैसे अवसर में गुरु राखी लाज हमारी) चन्दन पूजा करिये प्रभुकी, चन्दन पूजा करिये रे ॥ टेर ॥ जग वन्दन जिन चन्द चरण में, चन्दन पूजा करिये रे। कर्म निकन्दन द्वंद न रहते, आनन्द कन्द आदरिये रे ॥ चन्दन० ॥१॥ कर्म आठवां अन्तराय वह, होता पंच प्रकारा रे। निज में परमें और उभय में, होता है दुख भारा रे ॥ चन्दन० ॥२॥ अन्तराय देने पर पर को, उसके फल में भजना रे। अन्तराय फल निज को निश्चय, होता याते तजना रे ॥ चन्दन० ॥ ३॥ दान अगर देता हो कोई, उसमें रोक लगावे रे। तन से मन
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy