SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ बृहत् पूजा-संग्रह कल्याणक योगे । उत्तम नर भव प्रभु पूजन कर, पुरण प्रभुता भोगे रे ॥ पू० ॥ ४ ॥ प्रभु पूजा द्रुपी पापोदय, नरक महादुख पावे। परमाधासी क्षेत्र विपाके, रो रों समय वितावे रे ॥ ५० ॥ ५ ॥ भूख तृषा और पराधीनता, वध बन्धन तिर्यंचे। प्रकृति असाता. बँध जाती है, जीवन पाप प्रपंचे रे ॥ पू० ॥ ६ ॥ सात असाता क्षय कर होते अर्ह आप अयोगी। सिद्ध रूप होते हैं स्वामी, शिव सुख फल के भोगी है ।। पू० ॥ ७ ॥ सुख सागर भगवान परम गुरु, हरि पूज्येश्वर स्वामी। कवीन्द्र आतम शिव फल दाता, पूजो अन्तर्यामी रे ॥ पू० ॥ ८॥ || काव्यम् ॥ पीयूषपेशल रसोत्तम भाव पूर्णैः । मंत्र-ॐ हीं अर्ह . परमात्मने वेदनीय कर्मसमूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ।.. ॥ कलश ॥ [आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा) के अन्त में प्रकाशित कलश बोलें।]
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy