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________________ ३६२ वृहत् पूजा-संग्रह || टेर || जन आराधक अधिकारी, तज भेद अभेद विहारी । क्रमशः मति श्रुत अनुसारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी || दें || १ || आतम परमातम होता, जब पूर्ण ज्ञान गुण . होता । मीमांसक मति गति हारी, । पूजो ज्ञानी जिन अगोचर भावी, गुण 1 जय कारी || दें० || २ || यह अगम ज्ञान है पूर्ण प्रभावी । पाते जन जो अधिकारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी || दें० || ३ || नय निक्षेपा विस्तारें, अनुयोग विशेष विचारे । हो यह प्रमाण पद धारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी ॥ ० ॥ ४ ॥ मति श्रुत अवधि मनज्ञानी, केवल सर्वज्ञ विधानी । हरि कवीन्द्र ज्ञानी बलिहारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी || दें० ॥ ५ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ज्ञान स्वपर अवभासकर, होता है सुप्रमाण । आराधन से आतमा, हो अनन्त गुण खाण || एक देश व्याख्यान से, होता नय विज्ञान | सर्व देश व्याख्यान से, हो प्रमाण गुण ज्ञान || (तर्ज - कवाली - तेरा तो हो चुका हूँ ) नय से प्रमाण से हो, जन आत्म ज्ञान धारी । आतम गुणामिरामी, ज्ञानी सदा नमामि || टेर || जो जानते हैं
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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