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वृहत् पूजा-संग्रह
( तर्ज - लघुता मेरे मन मानी० )
भवि ! रमो प्रभु जीवन में, जीवन आनन्द भवन में रे ॥ भ० || टेर० || पहिले भव श्रीनयसारा, नय विनय सार गुण धारा । मार्गानुसारि उदारा रे, ग्राम चिन्तक जन हितकारा ॥ भ० || १ || वर काष्ट हेतु वन जावे, खाउ मैं खिलाकर भावे | जो मिलें अतिथि अविकारा रे, तो मानूं धन अवतारा ॥ भ० || २ || पथ भूले साधु पधारे, सन्मुख नयसार सिधारे । विन बादल वृष्टि समानारे, धन सन्त मिले सुखदाना ॥ भ० ॥ ३ ॥ शिष्टाचारी पद वन्दे, दे भात पानी चिर नन्दे । हो सत्संगी सुखकारी रे, सम्यग्दर्शन अधिकारी ॥ भ० ॥ ४ ॥ कृत अतनु कर्म तनु करणं, कर यथा प्रवृत्ति करणं । निज भाव अपूव लावे रे, जड़ चेतन भेद उपावे ॥ भ० ॥ ५ ॥ मुनि द्रव्य मार्ग तब पाये, नयसार भाव पथ आये । जब पुण्य कमल है खिलता रे, सुरभित आतम रस मिलता ॥ भ० ॥ ६ ॥ भव गिनती समकित करता, गति शुक्ल पक्ष अनुसरता । समकित सुखसागर सीरारे, सेवो भगवान सुधीरा ॥ भ० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र धन नरनारा, भव्यातम समकित धारी । पूर्जे प्रभु समकित हेतु रे, शिवपथ भव जल निधि सेतु ॥ भ० ॥ ८ ॥
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