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________________ ३०० वृहत् पूजा-संग्रह तीन दिशा प्रतिरूपको थापे व्यंतर देव । ध्वजा पुर एव ॥ ३ ॥ भामंडल पीछे रचे, चक्र सुनि१ सुरनारी२ साधवी‍ अग्नि १ कूण अवधार । ज्योति१ भवनर व्यंतरः सुरी, नैरितर कूण विचार ॥४॥ ज्योति १ भवनर व्यंतर ३ सुरा, वायव३ कूण मकार । सुर१ नर२ नारी३ कूणमें, ईशाने४ श्रीकार ॥५॥ | ( मालकोश - त्रिताल ) प्रभु शांतिनाथ उपदेश देत, सुने भव्य जीव भव तरण हेत || प्रभु || अंचली || दुर्लभ भव मानवको पायो, धर्म करे तो हो सुखदायो । शुद्ध करी निज आत्म खेत । प्रभु० ॥ १ ॥ क्रोध मान मायाको विसारे, लोभ कषाय को दूर निवारे । इन्द्रिय जय मन धार लेत ॥ प्रभु० ॥२॥ इन्द्रिय जय विन निष्फल जानो, काय क्लेश यम नियम वखानो | राग द्वेष तज देत चेत | प्रभु० ॥ ३ ॥ चक्रायुध सुनी प्रभु मुख वानी, राज्य देह सुत हुओ मुनि ज्ञानी । 8 - प्रभु समवसरण में पूर्वाभिमुख बिराजते हैं, अन्य तीन दिशा में व्यंतर देवता प्रभु के प्रतिबिंव स्थापन करते हैं, प्रभु के प्रभाव से वे भी प्रभु के समान ही दीखते हैं । x - धर्मचक्र और इन्द्र ध्वज प्रभु के आगे ही होते हैं ।
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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