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________________ १६४. वृहत् पूजा-संग्रह ॥ अष्टदश श्रीभरनाथ जिन पूजा ।। ___- ॥ दोहा ॥ जिन अठारमो ध्याइये, भविजन चित्त मझार । करण तीन इक कर मुदा, प्रतिदिन जय जयकार ।। ॥राग वसन्त ॥ (तर्ज-संग लागोही आवे, कुग खेले तोसु होरी रे) . नित विमल भक्ति से, अर जिनसे नित रमिये रे ॥ ॥ नित० ॥ निजगुण जिनगुण तुल्य करणकु, चंचल चित हय दमिये रे ॥ नि० ॥ १ ॥ सुमति युवति संयम उर धरिके, कुमति नारि संग गमिये रे। नि० ॥ अनुभव अमृत पान करणते, विषय विकृति विष वमिये रे ॥ नित० ॥२॥ जिनवर संग रमणं दव अनले, पंक सघन चन धमिये रे। कहे शिवचन्द्र जिनेन्द्र रमणसे, भववनमें नहीं भमिये रे ॥ नि० ॥३॥ . ॥कान्य ॥ सलिल० ॐ हीं श्री प० श्रीमत् अर जिने० ॥ । उनविंशति श्री मल्लिजिन पूजा ।। ॥दोहा॥. .. . . उगणीसम जिन चरणकज, भमरहोय लयलाय । सेवे तसुभवि भमरता, अगणित दुरित विलाय ॥ 15
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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