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________________ १८० वृहत् पूजा-संग्रह ॥ काव्य ॥ सलिल चंदन ॥ ॐ हीं श्री प० श्रीमत् अजित-- जिनेन्द्राय जलं चन्दनं० यजामहे स्वाहा । ॥ तृतीय श्रीसंभव जिन पूजा ।। ॥दोहा॥ जय जितारि संभव सदा, श्रीसंभव जिनराज !! सकल लोक जिण जीतलिय, जीतो मोह समाज । ॥ ढाल | (तर्ज-गंधवटी घनसार केसर, मृगमदारस भेलिय) अपरिमित वर शिखर सागर, धार संभव कार ए। जिनराज संभव पाय वंदो, लहो भव जल पार ए । वलि जलधि जात सुजात कुञ्जर, कुम्भ भंजन जानिये । तसु, जनक नाम समान नामा, भए जिन उर आनिये ॥॥ जसु चरण पंकज मधुर मधुरस, पान लय लागी रह्यो । मिल कर सुरासुर खचर व्यंतर, भमर नित चित्तः ऊमया ॥ जसु चरण कमले प्लवंग लांछन, कनक सुवरन काय ए। सहु भुक्न नायक सुमति दायक, जननि सेना. जाय ए ॥ २ ॥ जसु मधुर वाणी जग वखाणी, तीस शर गुण धारिणी। संसार सागर भय भराभर, पतित पार
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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